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________________ ७२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् युगपत् क्रमेण चोपलब्धेः । न च तर-तमादिभेदेन नव-पुराणतया क्रमेणोपलब्धिः प्रतिक्षणं तथोत्पत्तिमन्तरेण सम्भवति । न चास्मदाद्यध्यक्षं निरवशेषधर्मात्मकवस्तुग्राहकं येनानन्तधर्माणामेकदा वस्तुन्यप्रतिपत्तेरभाव इत्युच्येत, अनुमानतः प्रतिक्षणमनन्तधर्मात्मकस्य तस्य प्रदर्शितन्यायेन प्रतिपत्तेः । सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तस्य च वस्तुनोऽध्यक्षेण ग्रहणे-तद्व्यावृत्तीनां पारमार्थिकतद्धर्मरूपतया अन्यथा तस्य तद्व्यावृत्तताऽयोगात्-कथं नानन्तधर्माणां वस्तुन्यध्यक्षेण ग्रहणम् ? ॥४२॥ * हेत्वहेतुभ्यां धर्मावादद्वैविध्यम् * इदानीं विदितनयत्वाद् विशिष्टप्रज्ञः शिष्यो विगृह्य कथनयोग्यः सम्पन्नः इति तस्य विग्रहकथनोपदेशमाह - 'दुविहो' इत्यादि - ___प्रत्येक भाव प्रतिक्षण में उत्पाद-विनाश-स्थिति स्वभावत्रयात्मक होता है यह तथ्य, हेतु से भी सिद्ध होता है । हेतु यह है कि जिस भाव को एक साथ अथवा क्रमशः शीत और उष्ण द्रव्य का सम्पर्क होता है, उस भाव की अवान्तर सूक्ष्म-सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम आदि भेद से, तथा स्वअपेक्षा से यानी स्वतः शीत या उष्ण भेद से अथवा परतः (= परसम्पर्क से) शीतरूप में और उष्णरूप में अथवा शीतोष्णरूप में एक साथ अथवा क्रमशः उपलब्धि होती है । तात्पर्य यह है कि ठंडी या गर्मी की ऋतु में एक ही वस्तु का पहले अल्पतम शीत अथवा अल्पतम उष्ण के रूप में उत्पन्न होने का अनुभव होता है और बाद में उस के शीतोष्ण स्पर्श में तर-तम भाव से प्रतिक्षण परिवर्तन होता ही रहता है, यद्यपि मूलस्वरूप में तो वह अवस्थित ही रहता है । अल्पतम शीत या अल्पतमोष्ण रूप में नष्ट हो कर प्रतिक्षण अल्पतर शीत या अल्पतरोष्ण के रूप में पन्न होता रहता है. इस प्रकार जो अनुभव होता है उस से यह सिद्ध होता है कि भाव मात्र प्रत्येक क्षण में उत्पाद-विनाश-स्थितिस्वभाव ही होता है, क्योंकि तर-तमादि भेद से नये-पुराने-स्वरूप में क्रमशः वस्तु की उपलब्धि तभी हो सकती है जब कि प्रतिक्षण उस प्रकार से उत्पत्ति मान्य की जाय । ऐसा नहीं कह सकते कि – 'हम लोगों को कभी भी एक काल में एक वस्तु में अनन्त धर्मों का अनुभव नहीं होता, इसलिये एक वस्तु में अनन्त धर्म नहीं हो सकते' - क्योंकि ऐसा तभी कहा जा सकता है कि कभी हम लोगों में से किसी को सकल (विद्यमान)धर्मात्मक वस्तु का ग्राहक प्रत्यक्ष यदि सिद्ध होता, तो सिद्ध वस्तु का अन्यत्र अभाव-प्रत्यक्ष माना जा सकता था, किन्तु वैसा नहीं है । वास्तव में, अनुमान से क्षण क्षण में वस्तु अनन्तधर्मात्मक कैसे होती है - इस का प्रतिपादन युक्तिपूर्वक पहले कर दिया है । * वस्तु के अनन्त धर्मों का प्रत्यक्ष-ग्रहण * वस्तु में अनन्त धर्मों का प्रत्यक्ष से ग्रहण हम लोगों को सर्वथा नहीं होता – ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सारे त्रैलोक्यगत पदार्थों से व्यावृत्त रूप में अश्वादि पदार्थों का प्रत्यक्ष बोध सर्वमान्य है, त्रिलोकवर्ती पदार्थों की व्यावृत्तियाँ तो वास्तव में हर किसी वस्तु के अपने ही धर्म हैं, यदि वे उसके धर्म नहीं माने जाय तो वह वस्तु अन्यपदार्थों से व्यावृत्त ही नहीं हो पायेगी । तात्पर्य यह है कि व्यावृत्ति स्ववृत्ति स्वेतरभेद स्वरूप होती है और वह स्व से अभिन्न होती है, अतः किसी भी वस्तु का स्व-रूप समस्त त्रैलोक्यवर्ती पदार्थों के भेदप्रतियोगितारूप सम्बन्ध के विना घटित ही नहीं होता । अतः अन्य सकल वस्तु से व्यावृत्तरूप में वस्तु के प्रत्यक्षबोध में भेदप्रतियोगी के रूप में अनन्त पदार्थों का ग्रहण भी हो जाने से वस्तु की अनन्तधर्मता का भी ग्रहण संगत है ॥४२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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