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________________ पञ्चमः खण्डः का० ४२ पचितमनोवर्गणापरिणतिप्रतिलभ्यमनउत्पादोऽपि तदैव वचनस्यापि 'कायोत्कृष्टतरवर्गणोत्पत्तिप्रतिलब्धवृत्तिरुत्पाद:, तदैव च कायात्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद् विषमीकृताऽसंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः, तदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिविनश्वराणामुत्पत्तिः, तदैव च मिथ्यात्वाऽविरति -प्रमाद - कषायादिपरिणतिसमुत्पादितकर्मबन्धनिमित्ताऽऽगामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमानानन्तपरमाण्वापादिततत्प्रमाणसंयोग-विभागानामुत्पत्तिः । 7 यद्वा यदैव शरीरादेर्द्रव्यस्योत्पत्तिस्तदैव त्रैलोक्यान्तर्गतसमस्तद्रव्यैः सह साक्षात् पारम्पर्येण वा सम्बन्धानामुत्पत्तिः, सर्वद्रव्यव्याप्तिव्यवस्थिताकाश-धर्माधर्मादिद्रव्यसम्बन्धात् । तदैव च भाविस्वपर्यायपरज्ञानविषयत्वादीनां चोत्पादनशक्तीनामप्युत्पादः शिरो - ग्रीवा - चचु- नेत्र - पिच्छोदर-चरणाद्यनेकावयवान्तर्भावकमयूराण्डकरसशक्तीनामिव, अन्यथा तत्र तेषामुत्तरकालमप्यनुत्पत्तिप्रसंगात् । उत्पाद-विनाशस्थित्यात्मकाश्च प्रतिक्षणं भावाः, शीतोष्णसम्पर्कादिवशादवान्तरसूक्ष्मतर - तमादिभेदेन तथैव स्व-परापेक्षया की परिणति यानी अनन्त मनः परमाणुओंमें मन के रूप में परिणमनशीलतारूप पर्यायों का आविर्भाव होता है । काया की उत्पत्ति के साथा साथ उस से सम्बद्ध विशेषक्रियात्मक वचन की उत्पत्ति होते समय काययोग से आकृष्ट भाषावर्गणारूप अभ्यन्तरवर्गणा के अनन्त परमाणुओं की वाणीरूप में परिणमनशीलतास्वरूप अनन्त पर्यायों की उत्पत्ति होती है । तथा काय-क्रिया की उत्पत्ति में अनेक उत्पाद शामिल हैं, जैसे, शरीर और आत्मा के विलक्षण संयोग से जो अन्योन्यमयतारूप अन्योन्यानुप्रवेश होता है उसके प्रभाव से जीव के असंख्य प्रदेशों में वैषम्य हो जाने से शरीरक्रिया के उत्पाद काल में भी न्यूनाधिकतारूप वैषम्य का उदय होता है जिस से शरीरक्रिया का आविर्भाव होता है । तथा शरीर के साथ उस के रूपादि का भी उत्पाद होता है और ये रूपादि भी प्रतिक्षण जन्मविनाशशील होते हैं । तथा काया उत्पन्न होती है तब मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के निमित्त से पूर्व में बँधे गये कर्म वर्त्तमानभव में उदयाभिमुख हो जाने पर तन्मूलक भावि ( शरीर सहभावी ) गतिविशेष भी फलोन्मुख होता है यह फलोन्मुखता भी विविध उत्पत्तिस्वरूप है जिस के अनेक भेद होते हैं । तथा, कायोत्पत्तिकाल में शरीरवासी आत्मा शरीरचयापचय के लिये अनन्तानन्त परमाणुओं का त्याग और ग्रहण करता है, उस वक्त उन परमाणुओं के समसंख्य संयोग-विभाग की आत्मा में उत्पत्ति होती है, अतः वह भी संख्या से अनन्त है । * शरीरोत्पत्ति के साथ सर्वद्रव्यसम्बन्धों का उत्पाद Jain Educationa International ७१ अथवा, जब शरीरादि एक द्रव्य की उत्पत्ति होती है उसी समय त्रैलोक्य में विद्यमान सभी द्रव्यों के साथ उस उत्पन्न द्रव्य के साक्षात् तथा परम्परा से अगणित सम्बन्ध उत्पन्न होते हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश आदि द्रव्यों का सम्बन्ध सर्वद्रव्यव्यापी होता है । तथा उसी समय, उस शरीरादि द्रव्य में भविष्यत् युवा-वृद्धत्वादिस्वपर्याय तथा सर्वज्ञादिज्ञानविषयतादि परपर्यार्यों की जननशक्तियाँ भी उत्पन्न हो जाती तथ्य को मयूराण्डकगत रसशक्ति के दृष्टान्त से भलीभाँति समझ सकते हैं । मयूर के अण्डे में जिस समय रसोत्पत्ति होती है उसी समय रस के भीतर, सिर- ग्रीवा - चोंच - नयन- पींछ- उदर-पैर आदि आदि अवयवों को भावि में उत्पन्न करनेवाली शक्तियाँ भी उत्पन्न हो जाती है । ऐसा अगर न मानें तो भविष्यकाल में उन अवयवों की उत्पत्ति ही रुक जायेगी । १. स्याद्वादकल्पलतायां 'कायाकृष्टान्तरवर्ग ०' इति पाठः समुचितः । हिन्दीविवेचन भी उसी पाठ के आधार पर लिखा है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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