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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् लभ्यत्वादीनि पच्यमाने घटे न स्युः । शूच्यग्रविद्धघटेनानेकान्तश्च परिहत एव । न च कपालार्थी घटं भिन्द्यादापरमाण्वन्ते विनाशे । ततः प्रतीतिविरुद्धत्वान्नासावभ्युपगन्तव्य इति ॥३९॥ प्रस्तुतमेवाक्षेपद्वारेणोपसंहरत्याचार्यः -
बहुयाण एगसद्दे जइ संजोगाहि होइ उप्पाओ ।
णणु एगविभागम्मि वि जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ ॥४०॥ वहाँ अनुमान की भी पहुँच नहीं हो सकती, कहा है कि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्षानुसार होती है । इस विवादास्पद वार्ता में आगमप्रमाण तो निरुपयोगी है चूँकि ऐसा कोई उभयसम्मत आगम ही नहीं है जिस में इस तथ्य पर कोई प्रकाश डाला गया हो । परमाणुपर्यन्त विनाश के स्वीकार के विरुद्ध यह तर्क है कि घटादि का परमाणुपर्यन्त विनाश हो जाने पर वहाँ कपालादि कुछ भी दिखाई नहीं देगा, क्योंकि परमाणु जो बचते हैं वे तो अदृश्य होने का माना जाता है ।
यदि यह कहा जाय - 'घटादि विनष्ट होने पर कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा – यह तर्क शिथिल है क्योंकि घट का विनाश होने पर भी छिद्रघट दिखाई देता है, तथा कच्चे घट को जब निभाडे में पाक के लिये रखा जाता है तब अग्निसंयोगरूप पाक से परमाणुपर्यन्त विनाश होने पर भी उसका सतत दर्शन होता है, अतः उस तर्क में अनैकान्तिकता है' – तो यह ठीक नहीं है, चूँकि छिद्र घट और पाकगत घट भी पक्ष में ही अन्तर्भूत है, अत: वहाँ भी यह आपादन करना है कि परमाणुपर्यन्त विनाश मानने पर छिद्र घटादि की उपलब्धि नहीं हो सकेगी । दूसरी बात यह है कि परमाणुओं में छिद्र उत्पन्न नहीं हो सकता, अवयविद्रव्य में ही वह उत्पन्न हो सकता है । छिद्र स्वयं आकाशमय होने से निरवयव होता है, अत: अवयव में तो छिद्रोत्पत्ति को अवकाश ही नहीं है, क्योंकि चरमावयव परमाणु कभी सछिद्र नहीं होता ।
* घटादि में रूपपरावर्तन का उपपादन * ___ यदि यह कहा जाय – 'अग्निसंयोगरूप पाक से परमाणु में ही रूपपरावृत्ति सम्भव है, पाकनिहित घट के रूप की परावृत्ति होती है यह तो सर्वमान्य है, यदि परमाणुपर्यन्त विनाश न माना जाय तो परमाणु में रूप-परावृत्ति न होने से पक्व घट में भी वह संगत नहीं हो पायेगी, इस से सिद्ध हो जाता है परमाणुपर्यन्त विनाश' – तो यह ठीक नहीं है । कारण, घटादिद्रव्य में रूपपरावर्तनकारक विशिष्ट सामग्री से, कथंचिद् अविनष्ट घटादि द्रव्य में भी नवीन रूपविशेष का उत्पाद हो सकता है । यदि परमाणुपर्यन्त विनाश माना जाय तो और भी बहुत विपदाएँ हैं, जैसे, पाकनिहित घट का एक बार परमाणुपर्यन्त भंग हो जायेगा तो पुनः उसी घट में पाकदेशावस्थान शक्य नहीं होगा । वही एकत्वादि संख्या भी तदवस्थ नहीं रह पायेगी । पाक के पहले जितना परिमाण था उतना ही परिमाण संगत नहीं होगा । "पाक काल में घटादि के ऊपर जाता है वह भी गिर जायेगा । "तथा. उस काल में वह सतत प्रत्यक्षोपलब्ध रहता है वह भी संगत नहीं होगा । यदि कहें कि - 'सूई की नोक से अगर घट में अनुवेध किया जाय तब आप के मत में भी घट तो बदल गया है, तो वे सारी आपत्तियाँ यहाँ लगने से अनेकान्त दोष होगा' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे जैन मत में तो परिणामवाद से इस का परिहार हो जाता है । यदि परमाणु-पर्यन्त विनाश माना जाय तो कभी कपालप्राप्ति के लिये घट को तोड दिया जाता है वह भी निरर्थक बन जायेगा । निष्कर्ष, परमाणुपर्यन्तविनाश प्रतीति-विरुद्ध होने से स्वीकारार्ह नहीं है ।।३९।।
प्रतिपक्ष में आक्षेप के साथ प्रस्तुत चर्चा का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं -
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