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पञ्चमः खण्डः - का० ३९
भावप्रसक्तिः ।
___ यदपि ‘अर्थान्तरगमनलक्षणो विनाशोऽसम्भवी परमाणुपर्यन्तत्वात् सर्वविनाशानाम्' इत्यभिधानम्, तदप्यसंगतम्, तथाभूतविनाशे प्रमाणाभावात् । तथाहि - न तावदध्यक्षं तत्प्रतिपादने व्याप्रियते कपालपर्यन्तघटविनाशोपलम्भे तस्य व्यापारोपलब्धेः । नानुमानमपि, प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेःअध्यक्षपूर्वकत्वेन तस्य व्यावर्णनात् । आगमस्य चात्रार्थेऽनुपयोगात् । परमाणुपर्यन्ते च विनाशे घटादिध्वंसे न किंचिदप्युपलभ्येत, परमाणूनामदृश्यत्वेनाभ्युपगमात् । 'छिद्रघटेन(ना?)पाकनिक्षिप्तेन वा तेनाऽनेकान्त' इति चेत् ? न, सर्वस्य पक्षीकृतत्वात्, अवयविनि च छिद्रस्योत्पन्नत्वात्, तस्य च निरवयवत्वान्नावयवे तदुत्पत्तिः परमाणुषु तदसम्भवात् । 'पाकान्यथानुपपत्त्या परमाणुपर्यन्तो विनाशः परिकल्प्यत' इति चेत् ? न, विशिष्टसामग्रीवशाद् विशिष्टवर्णस्य घटादेव्यस्य कथंचिदविनाशेऽप्युत्पत्तिसम्भवात् । परमाणुपर्यन्तविनाशाभ्युपगमे च तद्देशत्व-तत्संख्यात्वतत्परिमाणत्वोपर्यवस्थापितकर्पराद्यपात-प्रत्यक्षोपसे ही उत्पन्न होना चाहिये । यदि कहें कि वैसी कल्पना तो प्रत्यक्षबाधित है क्योंकि अल्पपरिणामवाले तन्तु से वस्त्र उत्पन्न होने का प्रत्यक्ष सर्वविदित है - तो घट के बारे में भी प्रत्यक्ष से सर्वविदित तथ्य यह है कि घट कपाल से नहीं किन्तु मिट्टीपिण्ड से ही उत्पन्न होता है अतः उस के कपालजन्यत्व की कल्पना भी बाधित हो जाती है ।
* परमाणु की अपरिवर्तनशीलता अघटित है * उपरांत, परमाणुवों का सदा-सर्वदा एकसा स्वरूप मानने वाले पक्ष में तो उन के सर्वथा अभाव को ही मानने का अतिप्रसंग हो सकता है । कारण, परमाणु का उत्पाद-विनाश न होने से उस का न तो कोई प्रागभाव है, न प्रध्वंसाभाव । इस स्थिति में उस में किसी भी अतिशय का आधान शक्य न होने से गगनकुसुम की तरह वह सर्वथा अकारक यानी कार्यक्रियाशून्य रह जायेगा जिस का दूसरा अर्थ है असत् होना । जब इस तरह परमाणु असत् हो जायेंगे तो फलतः व्यणुकादि कार्यद्रव्य का अभाव भी प्रसक्त्त होगा, क्योंकि जिस का कोई हेतु (=जनक) नहीं है वह असत् होता है । कार्यद्रव्य के असत् हो जाने पर तदाश्रित परत्व-अपरत्वादि की प्रतीति भी घटेगी नहीं, फलतः काल-दिशारूप अमूर्त्तद्रव्य के भी अभाव की प्रसक्ति होगी, परिणामतः समग्र विश्व का अभाव प्रसक्त्त होगा ।
* परमाणुपर्यन्त द्रव्यनाशवार्ता असंगत * ___ जो यह कहा जाता है कि – ‘अर्थान्तरगमनस्वरूप विनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यनाश परमाणुपर्यन्त ही होता है । तात्पर्य, घट-वस्त्रादि द्रव्य जब नष्ट होता है तो अर्थान्तरभूत कपाल-खंडवस्त्रादि रूपान्तर को प्राप्त नहीं होते किन्तु कपाल-कपालिका-उपकपालिका यावत् व्यणुक का भी नाश हो कर सिर्फ परमाणु बच जाते हैं। पुन: उन से व्यणुकादि क्रम से कपालादि उत्पन्न होते हैं ।'- यह कथन, इस प्रकार के विनाश में कोई प्रमाण न होने से असंगत है । देखिये - ‘घटादि द्रव्य का परमाणुपर्यन्त विनाश होता है' इस बात का निरूपण करने की प्रत्यक्ष की गुंजाईश ही नहीं है । प्रत्यक्ष तो सिर्फ कपालपर्यन्त विनाश को दिखाने की ही गुंजाईश धारण करता है।
अनुमान की भी परमाणुपर्यन्तविनाश की सिद्धि में गुंजाईश नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष की जहाँ पहुँच नहीं १. तेषां शरीरेन्द्रियाणां व्यणुकादिविनाशक्रमेण तावद् विनाशो यावद् परमाणुरिति - प्रशस्त० कं० ।
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