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__ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वायिकारणत्वानुमानमध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टम् । न चाल्पपरिमाणतन्तुप्रभवं महत्परिमाणं पटकार्यमुपलब्धमिति घटादिकमपि तदल्पपरिमाणानेककारणप्रभवं कल्पयितुं युक्तम्, विपर्ययेणापि कल्पनायाः प्रवृत्तिप्रसंगात्, अध्यक्षबाधस्तु तदितरत्रापि समानः । __किंच, परमाणूनां सर्वदैकं रूपमभ्युपगच्छन्नभावमेव तेषामभ्युपगच्छेत् अकारकत्वप्रसंगात्, तच्च प्रागभावप्रध्वंसाभावविकलत्वेनानाधेयातिशयत्वात् वियत्कुसुमवत् । तदसत्त्वे च कार्यद्रव्यस्याप्यभावः अहेतोस्तस्याऽसत्त्वात् । तदभावे च परापरत्वादिप्रत्ययादेरयोगात् कालादेरप्यमूर्त्तद्रव्यस्याभाव इति सर्वाहो सकता है।
उपरोक्त चर्चा से यह फलित होता है कि अजैन दार्शनिकोंने जो अणु(व्यणुक),महत् – ह्रस्व,दीर्घ ऐसे जो चतुर्विध कार्यद्रव्य का सिद्धान्त माना है वह असंगत है, क्योंकि अब परमाणु को भी कार्यद्रव्य में शामिल करना होगा । ___यदि यह कहा जाय कि - ‘परमाणु का उत्पाद-विनाश नहीं होता, व्यणुकादि कार्यद्रव्य के जनक परमाणु उस काल में संयुक्त हो कर विद्यमान रहते हैं, जब कार्य द्रव्य का विनाश हो जाता है तब वे अपने मूल पृथक् स्वरूप में अवस्थित हो जाते हैं' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ कार्यद्रव्य के प्रागभावरूप भी परमाणु हैं और वे ही परमाणु कार्यद्रव्य के प्रध्वंसाभावरूप भी दिखाये जा रहे हैं जो असंगत है क्योंकि प्रागभाव
और ध्वंस के एक होने में विरोध है । उदा० घटद्रव्य का प्रागभाव मृत्पिण्ड है और प्रध्वंसाभाव कपाल है, उन के एक होने में स्पष्ट ही विरोध है ।।
* प्रागभाव-प्रध्वंस क्रमशः पूर्वोत्तर द्रव्यात्मक हैं * ___ यदि कहा जाय कि - 'प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव तो तुच्छ है इसलिये मिट्टीपिण्ड और प्रागभाव एक नहीं हो सकते, तथा कपाल और प्रध्वंसाभाव भी एक नहीं है ।' - तो यह ठीक नहीं है । कारण, जो तुच्छ है वे किसी के भी जनक नहीं होते. अत: वे प्रमाणज्ञान के भी जनक नहीं हो सकते. प्रमाण के अविषय होने के कारण तुच्छ ऐसे प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव की स्थापना भी शक्य नहीं होगी, इसलिये पहले ही कह आये हैं कि प्रागभाव और प्रध्वंस ये तुच्छ नहीं है किन्तु क्रमशः पूर्वद्रव्य और उत्तरद्रव्यरूप ही हैं।
यदि यह कहा जाय कि - 'घटद्रव्य तो कपाल-कपाल के संयोग से उत्पन्न होता है और उन के विभाग से नष्ट हो जाता है यह वास्तविकता है, इसलिये मिट्टीपिण्ड को घट का समवायिकारण दिखाना ठीक नहीं है-' तो यह बात गलत है, क्योंकि प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है कि कुम्हार मिट्टी के पिण्ड रूप उपादान कारण से ही घटनिर्माण करता है न कि कपाल से । यह निर्बाधप्रत्यक्ष इतना बलवान है कि उससे, कपाल को समवायिकारण सिद्ध करनेवाला अनुमान भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि कपाल में समवायिकारणता का निर्देश, मिट्टीपिण्ड रूप कारण के प्रत्यक्ष से बाधित हो जाने के बाद उस अनुमान का प्रयोग करने को जाते हैं तो वह कालात्ययापदिष्ट दोष से ग्रस्त हो जाता है।
यदि कहा जाय कि - 'बडा परिमाण वाला वस्त्रादि कार्य अपने से अल्प परिमाणवाले अनेक तन्तुओं से उत्पन्न होता हुआ देख कर यह कल्पना सहज हो सकती है कि घटद्रव्य भी अपने से अल्पपरिमाणवाले अनेक कपालादिरूप कारण से ही उत्पन्न होना चाहिये ।' – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ विपरीत कल्पना को भी अवकाश है, देखिये - अधिक या समान परिमाणवाले मिट्टी पिण्ड से अल्प या समान परिणामवाले घटादि की उत्पत्ति को देख कर यह कल्पना हो सकती है कि वस्त्र भी अपने से समाधिकपरिमाणवाले अवयवों
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