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________________ पञ्चमः खण्डः का० ३४ इति न पुनरभिधीयते ॥ ३४॥ न चोत्पाद-विनाशयोरैकान्तिकतद्रूपताऽभ्युपगमेऽनेकान्तवादव्याघातः, कथंचित् तयोस्तद्रूपताऽभ्युपगमात् । तदाह - Jain Educationa International ४९ तो हो जायेगा वह समुदयजनित प्रयोगजन्य विनाश है । (b) प्रचंड वातविस्फोट से बडे बडे मकान गिर जाय वह स्वाभाविक समुदयकृत विनाश है । २ (a) मिट्टी के पिण्ड में से जब घट उत्पन्न होता है तब मिट्टी का घटरूप अर्थान्तर में परिणत हो जाना यही मिट्टीपिण्ड का विनाश है, यह प्रयोगजनित अर्थान्तरगमनरूप विनाश है । (b) गर्मी में बर्फ का पानी हो जाना, यहाँ बर्फ का स्वाभाविक अर्थारन्तरगमनरूप विनाश है । स्वाभाविक विनाश का जो ऐकत्विक भेद है वह उत्पाद की तरह समझ लेना । उदा० अवगाहादि की अनाधारता का विनाश | — - घटरूप अर्थान्तर (जो * मिट्टीपिण्ड के पुनरुन्मज्जन की आपत्ति का उद्धार मिट्टीपिण्ड के अर्थान्तरगमनरूप विनाश के बारे में यदि ऐसी शंका की जाय कि कि मिट्टीपिण्ड का विनाश ही है उस ) का विनाश होगा तो पुनः मिट्टीपिण्ड का प्रादुर्भाव हो जायेगा' तो वह वाजिब नहीं है क्योंकि मिट्टी का पिण्ड यह घट की पूर्वकालावस्था है और घटनाश यह घट की उत्तरकालीनावस्था है, स्वभावतः ये दोनों अवस्था असंकीर्ण होती है, असंकीर्ण का मतलब यह है कि किसी काल में किसी भी देश में घट की पूर्वावस्था उत्तरकालावस्थास्वरूप को धारण नहीं करती और उत्तरकालावस्था पूर्वावस्थास्वरूप को धारण नहीं करती, इस प्रकार पूर्वोत्तरावस्था का नियत पौर्वापर्य भाव होता है, यदि घटनाशकाल में मिट्टी पिण्ड का प्रादुर्भाव मानेंगे तो इस नियत पौवापर्यभाव का भंग हो जायेगा, क्योंकि पूर्वावस्था तब उत्तरावस्था रूप धारण कर लेगी । हाँ, होगा तो यह होगा कि घटकाल में जो मिट्टीपिण्ड - पूर्वावस्था अतीत है वह घटनाशकाल में और भी अधिक अतीत होने से अतीततर बनेगी, किंतु उत्तरावस्था का रूप यानी वर्त्तमानतास्वरूप को कैसे धारण करेगी ? अतीत कभी वर्त्तमानता का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सकता । ऐसा स्वभाव है कि भाविअवस्था क्रमशः वर्त्तमान और अतीत बनती है, वर्त्तमानावस्था स्वकाल में वर्त्तमान होती है और बाद में अतीत होती है, अतीतावस्था का स्वभाव है कि वह दिन-प्रतिदिन अतीततर, अतीततम होती है । इस स्वभाव का अतिक्रमण करके अतीतपूर्वावस्था वर्त्तमान बन जाय और वर्त्तमान अवस्था ( घटनाश) स्वकाल में पूर्वावस्थारूप यानी अतीतात्मक बन जाय ऐसा शक्य नहीं है । हाँ, यदि हम मिट्टीपिण्ड के विनाश को वस्तुभूत घटात्मक न मान कर सर्वथा तुच्छ - असत् मानते तब तो उस मिट्टीपिण्ड के तुच्छ अभावात्मक विनाश का अभाव तद्भावरूप यानी मिट्टीपिण्डात्मक होने की आपत्ति हो सकती थी । यहाँ तो एक वस्तु से अपने विनाश के रूप में तुच्छ अभाव नहीं किन्तु दूसरी वस्तु ही उत्पन्न हो रही है, वह दूसरी वस्तु यानी ठीकरीयाँ तो अभी वर्त्तमान है, उस काल में मिट्टीपिण्ड अवस्था तो अतीततर है, जो वस्तुरूप वर्त्तमानावस्था वर्त्तमान में है वह वर्त्तमान में ही अतीततर कैसे हो सकती है ? यदि अतीत अवस्था उत्तरकाल में क्रमशः अतीततर और अतीततम होने के बदले उत्तरकालावस्था को धारण कर लेगी तब तो सारे विश्व में 'तर - तम' ये दो व्याकरणप्रत्यय लगा कर जो प्राचीन - प्राचीनतर - प्राचीनतम आदि का व्यवहार किया जाता है उसका विलोप ही हो जायेगा । पहले इस गाथा की व्याख्या के आरम्भ में यह कह दिया है कि वस्तु की किसी एक अवस्था का विनाश होने पर अन्य अवस्था ( न कि पूर्वावस्था) उत्पन्न होती है, अतः यहाँ पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं ||३४|| * ऐकत्विकनाशश्चैकत्विकोत्पादवद् वैग्रसिकभेद एवेति स्याद्वादकल्पातायामुक्तम् सप्तमस्तबके । व्याख्याकृद्भिश्च नात्र किञ्चिदुल्लेख: कृतः । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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