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________________ ४८ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुविप्पो । समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च ॥ ३४ ॥ विगमस्याप्येष एव द्विरूपो भेदः - स्वाभाविकः प्रयोगजनितश्चेति, तद्व्यातिरिक्तस्य वस्तुनोऽभावात् पूर्वावस्थाविगमव्यतिरेकेणोत्तरावस्थोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न हि बीजादीनामविनाशेऽङ्कुरादिकार्यप्रादुर्भावो दृष्टः न चावगाह - गति - स्थित्याधारत्वं तदनाधारत्वस्वभावप्राक्तनावस्थाध्वंसमन्तरेण सम्भवति । तत्र समुदयजनितो यो विनाशः स उभयत्रापि द्विविधः, एकः समुदयविभागमात्रप्रकारो विनाशः यथा पटादेः कार्यस्य तत्कारणपृथक्करणे तन्तुविभागमात्रम्, द्वितीयप्रकारस्त्वर्थान्तरभावगमनं विनाशः यथा मृत्पिण्ड - स्य घटार्थान्तरभावेनोत्पादो विनाशः । न चार्थान्तररूपविनाशविनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिरिति वक्तव्यम्, पूर्वोत्तरकालावस्थयोरसंकीर्णत्वात् अतीततरत्वेन प्राक्तनावस्थाया उत्पत्तेः अतीतस्य च वर्त्तमानताऽयोगात् तयोः स्वस्वभावाऽपरित्यागतस्तथानियतत्वात् तुच्छरूपस्य ह्यभावस्याभाव: स्यादपि तद(?द्)भावरूप:, न तु वस्त्वन्तरादुपजायमानं वस्त्वन्तरमतीततरावस्थारूपं भवितुमर्हति तरतमप्रत्ययार्थव्यवहाराभावप्रसक्तेः । प्रतिपादितं च कस्यचिद् रूपस्य निवृत्त्या रूपान्तरगमनं वस्तुनः प्राक्, है, ये तीन स्वभाव सर्वद्रव्य साधारण न होने से विशिष्ट कार्यरूप हैं । जो विशिष्ट कार्य होते हैं वे विशिष्ट कारणपूर्वक ही होने चाहिये । अतः अवकाशप्रदानरूप असाधारणकार्य के विशिष्टकारणरूप में सिद्ध होनेवाले द्रव्य की सिद्धान्तानुसार 'आकाश' संज्ञा की गयी है, गतिसहायकत्वरूप विशिष्ट कार्य के जनकरूप में सिद्ध होने वाले द्रव्य की 'धर्मास्तिकाय' संज्ञा की गयी है । और स्थितिकारकत्वरूप विशिष्ट कार्य के उत्पादकरूप में सिद्ध होनेवाले द्रव्य की, सिद्धान्तानुसार अधर्मास्तिकाय संज्ञा की गयी है ||३३|| * विनाश के विविध प्रकारों का व्युत्पादन * उत्पाद की तरह विनाश की बात करते हैं — मूलगा :- विनाश का भी विधि वही है (जो उत्पाद का है) समुदयजनित के दो भेद हैं। १, समुदायविभागमात्र और २, अर्थान्तरभावगमन |३४| - व्याख्यार्थ :- उत्पाद की तरह विनाश के भी दो भेद हैं। १ स्वाभाविक और २ प्रयोगजन्य | ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो इन दोनों की जुगलबंदी का शिकार न बनती हो । इन दो प्रकार के विनाश का साम्राज्य पूरे वस्तुजगत् पर छाया हुआ है । कारण, हर कोई वस्तु नयी अवस्था धारण करके उत्पन्न होती ही रहती है, किन्तु पूर्व अवस्था का विनाश हुये विना नयी अवस्था की उत्पत्ति अशक्य है । कहीं भी अंकुरादि कार्य का उद्भव बीजादि के विनाश के विना होता हो ऐसा दीखता नहीं है । आकाशादि में जो अवगाहना, गति और स्थिति कार्य की आधारता उत्पन्न होती है वह ऐसे ही नहीं होती, आकाश में पूर्वकालीन अनाधारता स्वरूप अवस्था का विनाश होता है तब आधारतापर्याय उत्पन्न होता है । Jain Educationa International विनाश के जो दो प्रकार हैं उन में से पहला प्रयोगजनित जो है उसका प्रयोगजन्य उत्पाद की तरह एक ही भेद है समुदायजनित । स्वाभाविक विनाश का स्वाभाविक उत्पाद की तरह दो भेद हैं - १ समुदायजनित और २‘ऐकत्विक' । प्रयोगजन्य और स्वाभाविक दोनों ही समुदायजनित विनाश के दो भेद हैं समुदायविभाजनकृत और अर्थान्तरगमनरूप । १पहला है ( a ) समुदायान्तर्गत अवयवों का विभाजन हो जाना । एक वस्त्ररूप कार्य के अनेक खंड किये जाय अथवा उसके कारणभूत एक एक तन्तु अलग कर दिया जाय तो वस्त्र का विनाश - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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