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पञ्चमः खण्डः का० ३३
शम् हिमवद्-विन्ध्यावरुद्धविभिन्नदेशत्वात् तदवष्टब्धदेशमूभागवत्; अन्यथा तयो रूप-रसयोरिवैकदेशाकाशस्थितिप्रसक्तिः, न चैतद् दृष्टमिति सर्वं वस्तूत्पाद - विनाश-स्थित्यात्मकत्वात् कथंचित् सावयवं सिद्धम् ।
ततः प्रयोग-विस्रसात्मकमूर्त्तिमद्रव्यानारब्धत्वेनाऽऽकाशादेरुत्पाद ' ऐकत्विको 'ऽभिधीयते, न पुन - र्निरवयवकृतत्वादैकत्विकः । अयमपि स्यादैकत्विकः स्यादनैकत्विकः, न त्वैकत्विक एव । एवं मूर्त्तिमदमूर्त्तिमदवयवद्रव्यद्वयोत्पाद्याऽवगाह - गति-स्थितीनां यथोक्तप्रकारेण तत्रोत्पत्तेः अवगाह-गति-स्थितिस्वभावस्य च विशिष्टकार्यत्वाद् विशिष्टकारणपूर्वकत्वसिद्धेस्तत्कारणे आकाशादिसंज्ञाः समयनिबन्धनाः सिद्धाः ॥३३॥
उत्पादवद् विगमोऽपि तथाविध एवेत्याह
क्योंकि आकाश शब्द से अभिन्न है । निष्कर्ष, शब्द जिन लोगों के मत में आकाश का विशेषगुण है उन के मतानुसार, आकाशरूप आश्रय के नाश के विना शब्द का नाश संगत होना कठिन है इसलिये आकाश में भी विनाशित्व सिद्ध होता है । विनाशित्व की सिद्धि से सावयवत्व भी सिद्ध होगा । यहाँ विनाशित्व हेतु को बुद्धिआदि में सावयवत्व का विद्रोही बताना युक्त नहीं है क्योंकि बुद्धि आदि भी सावयव ही हैं यह भी कुछ समय पहले ही कह आये हैं। आत्मा का सावयवत्व प्रथम खंड में सिद्ध हो चुका है और बुद्धिरूप उसका विशेषगुण उस से कथंचिद् अभिन्न होने से वह भी सावयव ही है । * आश्रयत्वधर्म के नाश से गगननाश सिद्धि
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इस ढंग से भी आकाश में विनाशित्व की सिद्धि हो सकती है। शब्द आकाश का आश्रित है, आश्रित का नाश होने पर आकाश के आश्रयता धर्म का भी नाश हुए विना नहीं रहेगा, क्योंकि आश्रयता आश्रितत्वमूलक होती है । धर्म और धर्मी में कथंचिद् अभेद ही होता है, अतः आश्रयतारूप धर्म का नाश होने पर धर्मीरूप आश्रय यानी आकाश का नाश होना अनिवार्य है । आकाश में विनाशित्व की सिद्धि से अनायास सावयवत्व सिद्ध हो जाता है क्योंकि विनाशी द्रव्य सावयव ही होता है, जैसे घट - वस्त्रादि ।
तदुपरांत, हिमाचल और विन्ध्य आकाश के भिन्न भिन्न देश में अवष्टम्भन = आश्रयण करते हैं, जैसे कि हिमाचल और विन्ध्य पर्वत अपने से आक्रान्त भिन्न भिन्न भूखंड में अवष्टम्भन करते हैं । इस से भी सिद्ध होता है कि आकाश सावयव है । यदि रूप-रस की तरह उन दोनों को निरवयव एक पूरे ही आकाश में अवस्थित मानेंगे तो जहाँ रूप है वहाँ ही रस होता है वैसे ही जहाँ विन्ध्याचल है वहाँ ही हिमाचल की अवस्थिति प्रसक्त होगी, किन्तु वह इष्ट नहीं है । इस प्रकार, विविध प्रकार से हर कोई वस्तु उत्पत्ति-स्थितिविनाश त्रयात्मक सिद्ध होने से कथंचित् सावयव मानना चाहिये । (चाहे वह द्रव्य हो या गुण हो) । * ऐकत्विक उत्पाद में भी अनेकान्त *
मुख्य बात यह है कि आकाशादि का उत्पाद 'ऐकत्विक' इसलिये नहीं कहा गया कि आकाशादि निरवयव स्वयंरचित है, किन्तु प्रयोगजन्य या विस्रसात्मक किसी मूर्त्तद्रव्य से आरब्ध अवयव वाले वे नहीं होते इसलिये आकाशादि के उत्पाद को 'ऐकत्विक' कहा गया है । यह जो ऐकत्विक उत्पाद है वह सर्वथा ( एकान्त से) 'ऐकत्विक' ही है ऐसा नहीं है किन्तु कथंचिद् ऐकत्विक है कथंचिद् अनैकत्विक भी है ( क्योंकि आकाशादि तीन के अवयव एकान्तत: अमूर्त्त नहीं है ) । इस प्रकार मूर्त्तद्रव्य पुगल और अमूर्त अवयव वाले आकाशादि द्रव्य, इन के सम्पर्क से पुद्गलादि द्रव्य में अवगाहना, गति और स्थिति धर्मों की उपरोक्त रीति से उत्पत्ति होती है तब आकाशादि तीन में भी अवकाशदान, गतिपोषकत्व और स्थितिकारकत्व रूप स्वभाव उत्पन्न होता
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