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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रूप-रसयोरिव विरोधिताऽसिद्धेः । विरोधित्वे वा श्रवणसमयेऽपि तदभावप्रसंगः, तदापि तन्महत्त्वस्य सद्भावात् । नाऽपि संयोगादिविरोधिगुणः, तस्य तत्कारणत्वात् । नापि संस्कारः, तस्य गुणत्वेन शब्देऽसम्भवात् सम्भवे वा शब्दस्य द्रव्यत्वप्रसक्तिः । आकाशस्य द्रव्यत्वेन तत्सम्भवेऽपि तस्याभावे आकाशस्याप्यभावप्रसक्तिः तस्य तदव्यतिरेकात् । व्यतिरेके वा 'तस्य' इति सम्बन्धाऽयोगात् । नापि शब्दोपलब्धिप्रापकधर्माद्यभावात् तदभावः, तस्य विभिन्नाश्रयस्यानेन विनाशयितुमशक्यत्वात् । शक्यत्वे वा तदाधारस्यापि विनाशप्रसङ्गः, तस्य तदव्यतिरेकात् । ततोऽम्बरविशेषगुणत्वे शब्दस्य तद्विनाशान्यथानुपपत्त्या तस्यापि विनाशित्वम्, ततोऽपि सावयवत्वम् । न च बुद्ध्यादिभिर्व्यभिचारः उक्तोत्तरत्वात्।
किं च, आश्रितविनाशे आश्रयत्वस्यापि विनाशः आश्रितत्वनिबन्धनत्वात् तस्य, धर्मस्य च धर्मिणः कथंचिदव्यतिरेकात् तथाऽऽकाशस्य विनाशित्वात् सावयवत्वं घटादेरिवोपपन्नम् । किंच, सावयवमाका
* गगन में सविनाशित्व की सिद्धि से सावयवत्व * आकाश में सावयवत्व साधक एक और अनुमान विनाश की अन्यथानुपपत्ति से कर सकते हैं । आकाश यदि निरवयव होगा तो उसका विनाश असंगत रहेगा । 'रहने दो, हमें आकाश का विनाश अस्वीकार्य ही है' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आकाश में विनाशिता असिद्ध नहीं है, उस का साधक अनुमान हो सकता है, जैसे - आकाश अनित्य है क्योंकि उस के विशेषगुणभूत शब्द का विनाश आकाश को विनाशी माने विना शक्य ही नहीं है । कैसे यह देखिये - आपके आकाश में नित्यत्व के सिद्धान्त के साथ विरोध होता है इसीलिये आपने शब्द का नाश आश्रयभूत आकाशविनाश से प्रयुक्त नहीं माना है । किन्तु आखिर तो आकाशविनाश से प्रयुक्त ही शब्दनाश मानना पडेगा । कारण, और कोई शब्द का नाशक घटता नहीं है; विरोधिगुण के उद्भव से शब्द का नाश शक्य नहीं है, क्योकि आकाश का परममहत परिमाण और शब्द दोनों एक साथ एककाल में एक अर्थ में समवाय से बिना किसी विरोध रहने वाले हैं, जैसे रूप और रस, अतः परममहत्परिमाण
और शब्द में कोई विरोध असिद्ध है । आँख मुंद कर विरोध मानेंगे तो परममहत् परिमाणरूप विरोधि नित्य होने के कारण सदा विद्यमान होने से शब्द को श्रवणकाल में भी स्थिति प्राप्त नहीं होगी । संयोगादि गुण भी शब्द के विरोधि नहीं है, उल्टे संयोग-विभाग तो शब्द के जनक हैं, जैसे भेरी-दण्ड संयोग और वंशावयवविभाग। संस्कार भी शब्द का विनाशक नहीं हो सकता । गुण होने के कारण, संस्कार शब्दरूप गुण में तो रह ही नहीं सकता वह कैसे शब्द का विनाश करेगा ? यदि शब्द में उस के विनाशक संस्कारगुण का प्रादुर्भाव मानेंगे तो शब्द गुणाश्रय होने से उस में द्रव्यत्व प्रसक्त होगा जो जैन को इष्ट है किन्तु नैयायिकादि को इष्ट नहीं है । यद्यपि आकाश में संस्कार होता नहीं है, फिर भी द्रव्य होने के नाते आकाश में संस्कार मान कर उसको शब्द का नाशक बतायेंगे तो आकाश के भी नाश की आपत्ति होगी क्योंकि (समवायअसिद्धि पक्ष में) गुणगुणी में अभेद होता है अतः शब्द नष्ट होगा तो आकाश भी नष्ट होगा । यदि शब्द और आकाश में भेद मानेंगे तो 'आकाश का गुण' इस प्रकार षष्ठी विभक्ति का सम्बन्धमूलक प्रयोग संगत नहीं होगा क्योंकि अभेद के अलावा और कोई समवायादि सम्बन्ध यहाँ संगत नहीं हो सकता । यदि कहें कि - 'शब्द की उपलब्धि का जनक धर्मादि गुण का जब विनाश हो जाता है तो वह विनाश शब्द का भी विनाश कर देता है' - - तो यह गैरवाजिब है क्योंकि धर्मादिगुण के विनाश का आश्रय आत्मा है जो शब्द का आश्रय नहीं है, अतः भिन्न आश्रय में रहा हआ धर्मादिनाश शब्द का नाश नहीं कर सकता । फिर भी यदि धर्मादि के नाश से शब्द का नाश मानेंगे तो ऊपर कहा है तदनुसार शब्द के आधारभूत आकाश का विनाश भी प्रसक्त होगा,
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