SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ३३ यदि च सावयवमाकाशं न भवेत्, शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्यात् आकाशैकगुणत्वात् तन्महत्त्ववत् । अथ क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्दे प्रमाणतः प्रसिद्धेर्नायं दोषः । नन्वेवमेकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वाभ्युपगमे कथं न शब्दाधारस्याऽऽकाशस्य सावयवत्वप्रसिद्धिः ? न हि निरवयवत्वे 'तस्यैकदेशे एव शब्दो वर्त्तते न सर्वत्र' इति व्यपदेशः संगच्छते । न च संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वनिबन्धनोऽयम् यत आकाशं व्याप्य संयोगो न वर्त्तत इति तदेकदेशे वर्त्तत इत्यभ्युपगमप्रसक्तिः । व्याप्यवृत्तित्वं हि सामस्त्यवृत्तित्वम्, तत्प्रतिषेधश्च पर्युदासपक्षे एकदेशवृत्तित्वमेव, प्रसज्यपक्षे तु वृत्तिप्रतिषेध एवः न चासौ युक्तः, संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् तदभावे च तदभावात् । न च निरवयवत्वे समवेत ही शब्द की उपलब्धि होने का आप मानते हैं उस के बदले अखिल ब्रह्माण्ड में ध्वनित होने वाले सभी शब्दों की उपलब्धि का अतिप्रसंग होगा, क्योंकि शब्द को आप आकाश का गुण मानते हैं और आप के मत में श्रोत्र भी आकाश रूप ही है और आकाश निरवयव अखिल ब्रह्माण्डव्यापी है, मतलब पूरा आकाश ही जब श्रोत्रेन्द्रिय है तब उस में गुणरूप से समवेत हो कर उत्पन्न होने वाला कौन सा शब्द अनुपलब्ध रहेगा ? यदि कहें कि - 'पूरा एक आकाश श्रोत्रेन्द्रियरूप नहीं है किन्तु धर्म-अधर्म के संस्कार से अभिव्याप्त कर्णछिद्र से अवरुद्ध जो आकाश-खंड है, इतना ही श्रोत्रेन्द्रिय है, अतः जो शब्द गुण उतने खंड में समवेत होगा वही सुनाई देगा, अखिलब्रह्माण्डगत शब्द का तो उस में समवाय अशक्य है इसलिये अखिल शब्दों के श्रवण की विपदा नहीं हो सकती' - तो यह भी व्यर्थ है क्योंकि ऐसे तो सरलता से आकाश के सावयवत्व की सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि सावयवत्व के विना कर्णछिद्र अवरुद्ध आकाश खंड की बात भी कैसे होगी ? आप को जरूर मानना पडेगा कि सुनाई देनेवाले शब्द के समवायि श्रोत्रमय आकाश खंड अन्य सभी ब्रह्माण्डगत शब्दों के समवायी महत् आकाशखंड से कथंचिद् भिन्न है अन्यथा शब्दमात्र के श्रवण की आपत्ति नहीं टाल सकते । इस तरह आकाश में सावयवत्व सिद्ध हो जाता है । * गगन निरवयव होने पर शब्द में व्यापकत्व का अनिष्ट * गगन यदि सावयव न हो तो शब्दमात्र को सर्वव्यापी और नित्य मानना पडेगा, क्योंकि गगन के परममहत् परिणाम की तरह शब्द एकमात्र आकाश का ही गुण है। आकाश का परममहत् परिणाम सर्वव्यापि है और नित्य है तो शब्द भी वैसा क्यों नहीं होगा ? यदि कहें कि - 'न्याय-वैशेषिक परिभाषा के अनुसार बहिरिन्द्रिय ग्राह्य होने से शब्द आकाश का विशेषगुण है, तथा 'यह शब्द वीणा में उत्पन्न हो कर शीघ्र ही नष्ट हो गया' इस प्रतीति से शब्द में क्षणिकत्व और एकदेशवृत्तित्व प्रमाणसिद्ध है, इसलिये शब्द में नित्यत्व और सर्वव्यापित्व की दोषापत्ति को अवकाश नहीं ।' - तो यहाँ स्पष्ट देख सकते हैं कि शब्द को उक्त प्रतीति के बल पर एकदेशवृत्ति-विशेषगुणात्मक मानने पर, एकदेशवृत्तित्व को संगत करने के लिये शब्द के आश्रयभूत आकाश का सावयवत्व सुप्रसिद्ध हुए विना कैसे रहेगा ? आकाश निरवयव होने पर, 'शब्द आकाश के एकभाग में ही रहता है न कि सर्वभागों में' ऐसा शब्दव्यवहार संगत नहीं हो सकता ।। * संयोग की अव्याप्यवृत्तिता से गगन-सावयवत्वसिद्धि * यदि ऐसा कहेंगे कि - ‘आकाश में एक भाग का शाब्दिक व्यवहार संयोग की अव्याप्यवृत्तितामूलक होता है न कि आकाश की सावयवतामूलक' – तो यह व्यर्थ है, क्योंकि अव्याप्यवृत्तिता का अर्थ क्या है ? पूरे आकाश को व्याप्त कर के संयोग नहीं रहता, यही । इसका अर्थापत्ति से यही अर्थ मानना पडता है कि 'संयोग आकाश के एक भाग में रहता है' इसलिये अनायास सावयवत्व सिद्ध हो जाता है । देखिये - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy