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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् आकाशस्य संतानवृत्त्याssगतस्य शब्दस्य श्रोत्रेणाप्युपलब्धिः सम्भवति, अन्यान्याकाशदेशोत्पत्तिद्वारेण तस्य श्रोत्रसमवेतत्वानुपपत्तेः । जलतरंगन्यायेनापरापराकाशदेशादावपरापरशब्दोत्पत्तिप्रकल्पनायां कथं नाकाशस्य सावयवत्वम् ? किंच, आकाशं शब्दोत्पत्तौ समवायिकारणमभ्युपगम्यते, यच्च समवायिकारणं तत् सावयवम् यथा तन्त्वादि, समवायिकारणं च परेण शब्दोत्पत्तावाकाशमभ्युपगतम् । न च परमाण्वात्मादिना व्यभिचारः तस्यापि सावयवत्वात्, अन्यथा द्व्यणुक - बुद्ध्यादेस्तत्कार्यस्य सावयवत्वं न स्यात् । न च बुद्ध्यादेः सावयवत्वमसिद्धम् आत्मनः सावयवत्वेन साधितत्वात् तद्विशेषगुणत्वेन बुद्ध्यादेः कथंचित् तादात्म्यसिद्धितः सावयवत्वोपपत्तेः । न च यत एव प्रमाणादणवः सिद्धास्तेषां निरवयवत्वमपि तत एव सिद्धमिति ४४ • व्याप्यवृत्तित्व का अर्थ होता है 'अखिलद्रव्य में व्यापकरूप से रहना' । ' अव्याप्यवृत्ति' शब्द व्याप्यवृत्तित्व का प्रतिषेध करता है। प्रतिषेध के दो प्रकार हैं ? १ पर्युदास प्रतिषेध, जिस में निषेध्य के निषेध के साथ सदृश का विधान होता है । २ प्रसज्यप्रतिषेध, जिस में सर्वथा निषेध किया जाता है । यहाँ व्याप्यवृत्तित्व का पर्युदास प्रतिषेध मानेंगे तो अखिल ब्रह्म में व्यापक रूप से रहने के निषेध के साथ किसी एक देश में वृत्तित्व का विधान भी फलित होगा, तब अनायास सावयवत्व सिद्ध हो जायेगा । प्रसज्यप्रतिषेध यहाँ सावकाश नहीं है क्योंकि तब संयोग की अव्याप्यवृत्तिता का वृत्तित्वनिषेध अर्थ फलित होगा, किन्तु वह इष्ट नहीं है क्योंकि संयोग गुणात्मक होने से उस को द्रव्यवृत्ति ही मानना पडेगा, द्रव्यवृत्ति यदि वह नहीं होगा तो वह स्वयं अभावप्रतियोगी ही बन कर रह जायेगा । * शब्दश्रवण से गगनसावयवत्व की सिद्धि आकाश को निरवयव मानने पर, दूरदेश में उत्पन्न होने वाला शब्द परंपरागतश्रेणि के द्वारा उत्पत्तिस्थान से श्रोत्र तक पहुँच कर सुनाई देता है यह बात नहीं घटेगी, क्योंकि शब्द तो गुण है वह स्वयं दूर से श्रोत्र तक दौड कर पहुँच नहीं सकता, न श्रोत्र दौड कर वहाँ जा सकता है, नैयायिक मत के अनुसार शब्द दूर देश में उत्पन्न हो कर दूसरे क्षण में निकटवर्त्ती आकाश में नये शब्द को उत्पन्न करता है, वह भी अग्रिम आकाश में नये शब्द को उत्पन्न करता है, इस प्रकार एकश्रेणि में नया नया उत्पन्न होने वाला शब्द जब श्रोत्र देश में उत्पन्न होता है तब सुनाई देता है, किन्तु यह प्रक्रिया आकाश को निरवयव मानने पर कैसे संगत होगी ? नैयायिकों ने जो जलतरंग का उदाहरण दिया है, जल में कंकरक्षेप होने पर कंकरस्पृष्ट जल में तरंग उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाती है किन्तु वह अपने आसपास के पानी में नयी तरंग पैदा करती है, वह भी उसी प्रकार नयी तरंग पैदा करती है। इस प्रकार नये नये तरंग की उत्पत्ति होने से, उत्पत्तिस्थान से तटप्रदेश तक तरंग पहुँच जाती है । ठीक इसी प्रकार उत्पत्ति देश से नये नये शब्दों की उत्पत्ति हो कर शब्द श्रोत्रदेश तक पहुँच जाता है । किन्तु यह कब संभव होगा ? जल की तरह आकाश को भी सावयव माना जाय तभी, अन्यथा नहीं । जैसे तरंग की उत्पत्ति परिमित जल में होती है वैसे परम्परया नये नये शब्दों की उत्पत्ति भी परिमित आकाश में ही हो सकती है, तो आकाश को सावयव माने विना कैसे चलेगा ? * सभी समवायीकारण सावयव है। व्याप्ति * - - सावयवत्व का साधक और एक प्रमाण है, नैयायिकादि विद्वान शब्द की उत्पत्ति में आकाश को समवायिकारण मानते हैं, जो भी समवायिकारण होता है वह सावयव होता है जैसे तन्तु आदि । आकाश को शब्द की उत्पत्ति में समवायिकारण तो माना हुआ ही है । यदि कहें कि 'परमाणु भी द्व्यणुकादि का समवायी कारण है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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