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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् मूर्तिमद्रव्यानारब्धानामपि तेषां सावयवत्वात् । न च सावयवत्वमसिद्धम् प्रदेशव्यवहारस्याऽऽकाशे दर्शनात् । न च 'आकाशस्य प्रदेशाः' इति व्यवहारो मिथ्या मिथ्यात्वनिमित्ताभावात् । न च संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वनिमित्तः सावयवत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वकारणम्, निरवयवेऽव्याप्यवृत्तिसंयोगाधारत्वस्याऽध्यारोपनिमित्तस्यैवानुपपत्तेः । यदि च सावयवं नभो न भवेत् तदा श्रोत्राकाशसमवेतस्येव शब्दस्य ब्रह्मभाषितस्याऽप्युपलम्भोऽस्मदादि(?दे)र्भवेत्, निरवयवैकाकाशश्रोत्रसमवेतत्वात् । अथ धर्माधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धाकाशदेश एव श्रोत्रं तत्र च ब्रह्मभाषितस्याऽसमवायानास्मदादिभिः श्रवणम् । नन्वेवं सैव सावयवत्वप्रसक्तिः श्रोत्राकाशप्रदेशाद् ब्रह्मशब्दाधाराकाशदेशस्यान्यत्वात् । चक्रादि द्रव्यों की अवगाहना, गति और स्थिति में निमित्तभूत बनते हैं, तब जो उन आकाशादि की अनिमित्तभाव से निवृत्ति हो कर निमित्तभाव में उत्पत्ति होती है उसे 'एकत्विक' यानी अवयवसमुदाय के जन्यसंयोग के विना ही स्वगत एकत्वप्रयुक्त उत्पाद कहा जाता है । तात्पर्य, अन्यद्रव्यों के अवगाहनादि कार्य में उन का जो निमित्त भाव है वह आकाशादि की एक अपनी ही प्रधानता रखता है, अन्य कारकों की नहीं, इसलिये 'ऐकत्विक' उत्पाद कहा जाता है । उन में जो निमित्तभाव उभर आता है उस में आकाशादि से अन्य अवगाहकद्रव्य, गतिकारक द्रव्य और रुद्धगतिक द्रव्य भी निमित्त बनते हैं इसलिये यह ऐकत्विक उत्पाद, विना किसी नियम से, यानी कथंचिद्, परप्रत्ययिक (=परनिमित्तक) भी कहा गया है । * गगनआदि में सावयवत्व प्रसिद्धि * प्रश्न :- जब अनेकान्त व्यापक है तो गगनादि में भी कथंचित् सावयवत्व, कथंचित् निरवयवत्व, इस तरह अनेकान्त होना चाहिये । किन्तु, जब आपने कहा कि गगनादि के ऐसे कोई अवयव नहीं है जो मूर्त्तद्रव्य से निष्पन्न हो, इसका मतलब यह होगा कि गगन निरवयव है, जितने भी सावयव द्रव्य हैं वे सब मूर्त्तद्रव्य के अवयवों से बना हुआ होता है, गगनादि वैसा नहीं है इसलिये उस में एकान्त निरवयवत्व प्रविष्ट होने से अनेकान्तात्मकत्व का व्याघात क्यों नहीं होगा ? उत्तर :- अनेकान्तात्मकत्व का व्याघात शक्य नहीं है, क्योंकि गगनादि द्रव्य मूर्त्तद्रव्य के अवयवों से निष्पन्न न होने पर भी अमूर्त (अनिष्पन्न) अवयवों के शाश्वत योग से गगनादि का शाश्वत अस्तित्व जारी है । ऐसा नहीं कह सकते कि 'गगन में सावयवत्व असिद्ध है'; क्योंकि 'आकाश के प्रदेश' ऐसा जो व्यवहार विश्वप्रसिद्ध है उस से ही सिद्ध हो जाता है कि आकाश सावयव द्रव्य है । 'आकाश के प्रदेश' इस तरह के व्यवहार को मिथ्या कहना वाजिब नहीं, क्योंकि ऐसा कोई निमित्त यानी बाधक नहीं है जिस से कि उस व्यवहार को अप्रमाण घोषित किया जा सके । * संयोग की अव्याप्यवृत्तिता दुर्घट * यदि यह कहा जाय – ‘गगन की अवयवसंयोग से निष्पत्ति नहीं होती है, किन्तु उस में अव्याप्यवृत्तिभाव से संयोग रहता है – इसी के निमित्त से आकाश में भी सावयवत्व का आरोप किया जाता है, वास्तव में वहाँ सावयवत्व नहीं है किन्तु औपाधिक है, इसीलिये 'आकाश के प्रदेश' यह व्यवहार मिथ्या है ।' – तो यह गैरवाजिब है चूँकि आरोप का निमित्त जो आपने बताया संयोग का अव्याप्यवृत्तित्व, वही गगन के निरवयव होने पर नहीं घट सकेगा तो उस के निमित्त से व्यवहार में औपाधिकत्व की सिद्धि की आशा कैसे ? गगन यदि निरवयव है तो उस में रहने वाले संयोग को पूरे आकाश में व्याप्यवृत्ति हो कर ही रहना पडेगा, अवयव के विना एकदेशवृत्तित्व कैसे घटेगा ? गगन यदि निरवयव होगा तो यह भी आपत्ति आयेगी-श्रोत्राकाश में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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