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पञ्चमः खण्डः - का० ३३ वयवकृतत्वात् स समुदायवादः, तथाभूताऽऽरब्धस्य समुदायात्मकत्वात् । तत एवाऽसावपरिशुद्धः, सावयवात्मकस्य तच्छब्दवाच्यत्वेन अभिप्रेतत्वात् ॥३२॥ विस्रसाजनितोऽप्युत्पादो द्विविध इत्याह -
साभाविओ वि समुदयकओ ब्व एगंति[एगत्ति]ओ व्व होज्जाहि ।
आगासाईआणं तिण्हं परपञ्चओऽणियमा ॥३३॥ स्वाभाविकश्च द्विविध उत्पादः - एकः समुदयकृतः = प्राक्प्रतिपादितावयवारब्धो घटादिवत् । अपरश्च एकत्विको = अनुत्पादिताऽमूर्त्तिमद्दव्यावयवारब्ध आकाशादिवत् । आकाशादीनां च त्रयाणां द्रव्याणामवगाहकादिघटादिपरद्रव्यनिमित्तोऽवगाहनादिक्रियोत्पादोऽनियमाद् = अनेकान्ताद् भवेद् । अवगाहक-गन्तृ-स्थातृद्रव्यसंनिधानतोऽम्बरधर्माधर्मेष्ववगाहन-गति-स्थितिक्रियोत्पत्तिनिमित्तभावोत्पत्तिरित्यभिप्रायः ।
नन्वनारब्धाऽमूर्तिमद्रव्यावयवत्वे गगनादीनां निरवयवत्वप्रसक्तेरनेकान्तात्मकत्वव्याघातः । न, उत्पाद को समुदायवाद कहा गया है । समुदायात्मक होने के कारण ही इसे अपरिशुद्ध कहा गया है, क्योंकि जिस में अनेक अवयवों का मिलन हो वही ‘समुदाय' शब्द से निर्दिष्ट होता है । यहाँ समुदाय की पूर्णता या अपूर्णता अवयव की पूर्णता-अपूर्णता पर अवलम्बित है यही अपरिशुद्धि है । स्याद्वादकल्पलता के सातवे स्तबक में श्री उपाध्यायजी कहते हैं कि 'अत्राऽपरिशुद्धत्वं स्वाश्रययावदवयवोत्पादापेक्षया पूर्णस्वभावत्वम्, न ह्यपूर्णावयवो घट उत्पद्यमान कात्स्न्ये॒नोत्पन्न इति व्यवहीयते इति' - अर्थः ‘अपने आश्रयभूतअवयवों के उत्पाद की अपेक्षा पूर्णस्वभाव होना यही अपरिशुद्धता है, अवयव यदि अपूर्ण हैं तो उन से पूरा घडा उत्पन्न होने का व्यवहार नहीं होता' अवयवों के उत्पाद की आधीनता ही अपरिशुद्धि है- यह तात्पर्य है ॥३२॥
* स्वाभाविक उत्पाद के दो प्रकार * स्वभाव से होनेवाले उत्पाद के दो भेद कहते हैं -
मूलगाथार्थ :- स्वभावजानित उत्पाद समुदायकृत और ऐकत्विक ऐसे द्विविध होता है । आकाशादि तीन द्रव्यों का विना नियम से अन्यनिमित्त होता है ।।३३।।
व्याख्यार्थ - विनसा का अर्थ है स्वभाव । यद्यपि प्रयोगजनित उत्पाद भी स्वभावकृत तो होता ही है, किन्तु यहाँ पुरुषप्रयत्न विरह में भी स्वभाव से जो उत्पन्न होते हैं उदा० बीजली आदि, उस के उत्पाद की बात है । इस के भी दो भेद हैं - (१) पहला उत्पाद तो समुदयकृत ही है । जैसे मूर्त्तद्रव्य से निष्पन्न अवयवों से घट का उत्पाद होता है वैसे मेघ-बीजली आदि का भी होता है । फर्क है तो इतना कि घटादि के उत्पाद में पुरुषव्यापार कारण होता है, मेघादि के उत्पाद में किसी पुरुष का व्यापार कारण नहीं होता । (२) दूसरे प्रकार के उत्पाद को 'एकत्विक' कहा गया है । आकाश, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये तीन द्रव्य स्वतन्त्र एक एक द्रव्यरूप हैं किन्तु उनका उत्पाद पृथक् पृथक् मूर्त्तिमद् द्रव्य के अवयवसमुदायों के मिलने से नहीं होता किन्तु उनका उत्पाद पृथक् पृथक् मूर्त्तिमद् द्रव्य के अवयव समुदायों के मिलने से नहीं होता किन्तु अनादि काल से वे अपने अजन्य-अमूर्त अवयवों में नित्य समवेत जैसे हैं, अत: नूतन द्रव्य घटादि की तरह उनका उत्पाद नहीं होता । वे स्वयं अकेले ही क्रमश: अवगाहनशील घटपटादि द्रव्य, गतिशील सूर्य-चन्द्रादि द्रव्य तथा स्थितिअभिमुख
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