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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् उप्पाओ दुवियप्पो, पओगजणिओ य वीससा चेव ।
तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवाओ अपरिशुद्धो ॥३२॥ द्विभेदः उत्पादः, पुरुषतरकारकव्यापारजन्यतयाऽध्यक्षानुमानाभ्यां तथा तस्य प्रतीतेः । पुरुषव्यापारान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वेऽपि शब्दविशेषस्य तदजन्यत्वे घटादेरपि तदजन्यताप्रसक्तेर्विशेषाभावात्, प्रत्यभिज्ञानादेश्च विशेषस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । तत्र प्रयोगेण यो जनित उत्पादः मूर्तिमद्रव्यारब्धाक्रमशः ३२-३३-३४ गाथाओं से व्युत्पादित करते हैं -
(३२-३३-३४ वीं गाथाओ की अवतरणिका में ऐसा भी कह सकते हैं कि ग्रन्थकार अनेक स्थानों में अनेकान्त का प्रवेश कैसे है यह दिखाते दिखाते, उत्पाद-विनाश आदि में भी ३५ वीं गाथा में अनेकान्तवाद का प्रवेश दिखाना चाहते हैं, उस के लिये पहले ३२-३३ वी गाथा से उत्पाद का और ३४ वीं गाथा से विनाश का जैन मत के अनुसार परिचय कराना चाहते हैं -)
* उत्पाद के विविध प्रकार * मूलगाथार्थ :- उत्पाद के दो विकल्प हैं १-प्रयोगजन्य, २-विस्रसाजन्य । उन में प्रयोगजन्य उत्पाद समुदयवाद कहा जाता है और वह अपरिशुद्ध है ॥३२।।
व्याख्यार्थ :- उत्पत्ति के दो प्रकार हैं - प्रयोग यानी पुरुष के प्रयत्न से जन्य और दूसरा वीससा यानी
व से जन्य । प्रत्यक्ष और अनमान दोनों प्रमाण से यह प्रसिद्ध तथ्य है कि घट-वस्त्र और वचनादि पदार्थ कुम्हार, जुलाहा, वक्ता आदि के प्रयत्न करने पर एवं अन्य कर्मादि कारकों के सक्रिय होने पर उत्पन्न होते हैं। जब कि आकाश में बीजली आदि पदार्थ स्वाभाविक यानी पुरुषप्रयत्न के विना ही अन्य मेघआदि कारकों के प्रभाव से उत्पन्न होता है । वचनात्मक शब्दविशेष भी वक्ता पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, यदि वक्ताशून्य गृह हो तो कोई वचन वहाँ नहीं सुनाई देता, इस प्रकार वचन में वक्ता के प्रयत्न के अन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण स्पष्ट उपलब्ध होता है। फिर भी यदि मीमांसक आदि दार्शनिक विद्वान शब्द को वक्ता के प्रयत्न के विना ही अस्तित्वप्राप्त यानी नित्य मानेंगे तब तो घटादि पदार्थ भी कुम्हार के प्रयत्न के विना ही अस्तित्वशाली मानने की आपत्ति प्रसक्त होगी । जन्यत्वरूप से वचन और घट में ऐसा कोई अन्तर नहीं है जिस से कि एक को प्रयत्नअजन्य और दूसरे को प्रयत्नजन्य ऐसा भेद सिद्ध किया जा सके । ___यदि कहें कि - ‘घटादि में वैसी प्रत्यभिज्ञा नहीं होती कि 'यह वही घट है' । जब कि 'मैं उसी ध्वनि को, उसी ककार-खकार को सुन रहा हूँ' ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है इसलिये शब्द नित्य ही है, पुरुष का प्रयत्न तो सिर्फ उस की अभिव्यक्ति करने में सार्थक होता है।' – तो यह ठीक नहीं है, पहले खण्ड में ही शब्दनित्यत्ववाद का या स्फोटवाद का प्रतिषेध विस्तार से हो चुका है । 'वही ककार है' यह प्रत्यभिज्ञा तो सिर्फ सजातीय वर्ण को ही विषय करती है । प्रयोग जन्य उत्पाद को यहाँ समुदायवाद कहा गया है । कारण, वस्त्र-घटादि पदार्थ. मर्त्त यानी रूपादिविशिष्ट पद्ल द्रव्य के बने हए छोटे बडे अवयवों के संयोजन से. उत्पन्न होता है। इस प्रकार वह अवयवों के समुदाय से विरचित होने से कथंचित् अवयवसमुदायात्मक ही होता है इसलिये ऐसे
म अत्र 'पुरुषव्यापार-पुरुषतरकारकव्यापारजन्यतया' इति पाठेन भवितव्यम्, एतद् स्याद्वादकल्पलतायाः सप्तमस्तबके उप्पाओ० साभाविओ वि० इति गाथाद्वयोद्धरणपूर्वनिरूपितव्याख्यानेन निश्चीयते ।
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