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पञ्चमः खण्डः - का० ३१ = परस्पराभावात्मकौ । ____ यतोऽयमभिप्रायः जीवद्रव्यं कुम्भादेरजीवद्रव्याद् व्यावृत्तम् अव्यावृत्तं वा ? प्रथमपक्षे स्वरूपापेक्षया जीवो जीवद्रव्यम्, कुम्भाद्यजीवद्रव्यापेक्षया तु न जीवद्रव्यमित्युभयरूपत्वादनेकान्त एव । द्वितीयविकल्पे तु सर्वस्य सर्वात्मकत्वापत्तेः प्रतिनियतरूपाभावतस्तयोरभावः खरविषाणवत् । ततः सर्वमनेकान्तात्मकम् अन्यथा प्रतिनियतरूपताऽनुपपत्तेः - इति व्यवस्थितम् ॥३१॥
अत्र प्रागुक्तम् – 'प्रत्युत्पन्नं पर्यायं विगत-भविष्यद्भ्यां यत् समानयति वचनं तत् प्रतीत्यवचनम्' इति, तत्र वचनादिकोऽपि पर्यायः । स चा प्रयत्नानन्तरीयको वचनविशेषलक्षणः, घटादिकस्तु प्रयत्नानन्तरीयक' इति केचित् सम्प्रतिपन्नाः, तन्निराकरणाय 'यद् यतोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रतीयते तत् तत एवाऽभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा कार्यकारणभावाभावप्रसक्तिः' - इत्याह - होता । इसी तरह जीव द्रव्य चेतनामय होता है, अतः वह कभी अचेतन कुम्भद्रव्यरूप नहीं होता । जीव
और कुम्भ को अन्योन्य से विशेषित किये जाय यानी एक-दूसरे में एक-दूसरे के भाव की मीमांसा की जाय तो पता चलेगा कि वे दोनों एक-दूसरे के अभावरूप यानी भेदरूप है । अतः जीवद्रव्यरूप न होने से कुम्भ अद्रव्य है और कुम्भद्रव्यरूप न होने से जीव भी अद्रव्यरूप है ऐसा कह सकते हैं ।
तात्पर्य इस प्रकार के विकल्प से फलित होगा कि जीवद्रव्य कुम्भादि अजीवद्रव्य से व्यावृत्त है या अव्यावृत्त ? प्रथमपक्ष में यही फलित होगा कि जीव स्व-रूप की अपेक्षा जीवद्रव्य है और कुम्भादि (अजीवद्रव्य) की अपेक्षा जीवद्रव्यरूप नहीं है, इस प्रकार उभयरूपता फलित होने से अनेकान्त ही सिद्ध होता है । दूसरे विकल्प में, एक भाव अन्य भावों से अव्यावृत्त होगा तो एक ही भाव में अन्य सर्व भावों का तादात्म्य प्रसक्त होने से, प्रत्येक भाव में अन्यसर्वभावात्मकत्व की प्राप्ति होगी, फलतः अमुक कुम्भादि द्रव्य कुम्भादिरूप ही है ऐसा प्रतिनियतभाव टिकेगा नहीं, फलतः शशसींग की तरह प्रत्येक भाव प्रतिनियतरूप से यानी कुम्भादि का प्रतिनियत कुम्भादिरूप से अभाव ही प्रसक्त होगा, क्योंकि अब सर्व सर्वात्मक होने से किसी में कोई प्रतिनियतरूप (=असाधारणरूप) बचा ही नहीं है - इस अनिष्ट से पार उतरने के लिये कथंचित् प्रथमपक्ष का स्वीकार करने पर सर्वभाव अनेकान्तात्मक है इस तथ्य को स्वीकारना ही होगा । नहीं स्वीकारेंगे तो भाव का प्रतिनियतरूप से अस्तित्व संगत नहीं हो सकेगा । इस प्रकार सर्वत्र अनेकान्त की निर्दोष व्यवस्था सिद्ध होती है ॥३१॥
* वचनविशेष में प्रयत्न-अजन्यत्व की मीमांसा * इस काण्ड की तीसरी गाथा में पहले यह कहा था कि 'प्रत्युत्पन्न पर्याय का भूत-भाविपर्यायों के साथ समन्वय करनेवाला वचन, वह प्रतीत्य वचन है' इस में वचन की बात है, उस के बारे में कहते है कि वचन एक पर्यायविशेषरूप ही है तो भी उस की उत्पत्ति के बारे में कुछ विवाद है, कुछ लोग कहते हैं कि वचनविशेषरूप ऐसा भी पर्याय होता है जो विना प्रयत्न ही अस्तित्वापन्न है, जब कि घटादिपर्याय ऐसे हैं कि उन की उत्पत्ति विना प्रयत्न नहीं होती । मीमांसा दर्शन मानता है कि शब्दरूप पर्यायविशेष नित्य सनातन हैं, किसी वक्ता के प्रयत्न से उस की उत्पत्ति होती है ऐसा नहीं है । ऐसी मान्यता में अपनी सम्मति दिखानेवाले विद्वानों के प्रति, उन की इस मान्यता का संशोधन करने के लिये ग्रन्थकार यह दिखाना चाहते हैं कि जो(धूमादि) अन्वय-व्यतिरेक सहचार से, जिस अवधि (अग्नि आदि) के साथ संलग्न होते दिखाई देते हैं वह उस से उत्पन्न होता है ऐसा अवश्य मानना चाहिये, अन्यथा धूम और अग्नि आदि भावों में जो कार्य-कारणभाव की व्यवस्था है उस का भंग हो जायेगा । इस तथ्य को ध्यान पर लाने के लिये ग्रन्थकार उत्पाद और विनाश के भेद
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