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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न भवति इति अदहनः इति' - तदपि न सर्वथा अदहनद्रव्यं भवति, पृथिव्यादेरदहनरूपाद् व्यावृत्तत्वात् अन्यथा दहनव्यतिरिक्तभूतैकत्वप्रसङ्गः इत्यनेकान्त एव अदहनव्यावृत्तस्य तद्र्व्यत्वात् ॥३०॥ नन्वेवं तदतद्र्व्यत्वात् जीवद्रव्यमजीवद्रव्यम् अजीवद्रव्यं च जीवद्रव्यं स्यादित्याशंक्याऽऽह -
कुंभो ण जीवदवियं जीवो ण होइ कुंभदवियं ति ।
तम्हा दो वि अदवियं अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥३१॥ कुम्भो जीवद्रव्यं न भवतीति, जीवोऽपि न भवति घटद्रव्यम् । तस्माद् द्वावपि अद्रव्यमन्योन्यविशेषितौ की सार्थक गुणधर्मप्रयुक्त्त 'दहन, पवन' ऐसी संज्ञा की गयी है। इसका मतलब यह कभी नहीं है कि ये दहनादि एकान्ततः दहनादिरूप ही होते हैं । यहाँ अनेकान्तवाद इस तरह है - ज्वलनशील परिणामवाले तृणादि पदार्थों का अग्नि दहन करता है इस लिये दाह्य तृणादि की अपेक्षा वह जरूर 'दहन' है, किन्तु जो ज्वलनपरिणामशील नहीं होते वैसे आत्मा, आकाश तथा दूरस्थ असंयुक्त वस्तु, वज्र, अणु आदि का वह दहन नहीं करता है; अरे ! वह खुद अपना भी दहन नहीं करता है, इसलिये अदाह्य वस्तु की अपेक्षा अग्नि अदहनरूप भी है। तात्पर्य, अग्नि आदि जिन द्रव्यों का जिस रूप में (आकाशादि के रूप में) निषेध किया जाता है उन रूपों से उन अग्निआदि द्रव्यों को अद्रव्य (अदहन) कहा जाय तो कोई गलती नहीं है, वास्तव में वहाँ इस प्रकार भजना यानी विकल्प को अवकाश रहता है कि (तृणादि की अपेक्षा से) अग्नि कथंचिद् दहनद्रव्य रूप है और कथंचिद् (आकाशादि की अपेक्षा) दहनद्रव्यरूप नहीं है, यानी अदहन है । इस प्रकार, अनेकान्त में अव्यापकता निरवकाश है ।
जलादि द्रव्य दहनभिन्न होने से 'अदहन' कहे जाते हैं - यहाँ भी एकान्तवाद नहीं है, क्योंकि 'अदहन' का मतलब है कि दहनरूप से प्रतिषेध, यानी जल दहन नहीं है इसलिये ‘अदहन' है; किन्तु पृथ्वी आदि द्रव्य भी दहनात्मक न होने से 'अदहन' ही हैं, 'जलरूप' अदहन 'पृथ्वीरूप' अदहन से भिन्न है इसलिये कह सकते हैं कि जल भी कथंचित् अदहन(पृथ्वी)रूप नहीं है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो 'दहन' से भिन्न जितने भी जल-पृथ्वी आदि द्रव्य हैं उन में एकत्व का अतिप्रसंग होगा । अतः, जलादि अदहनद्रव्य पृथ्वीआदि अदहन द्रव्य से कथंचिद् भिन्न होने पर ही जलादिरूप से सुरक्षित रह सकते हैं अन्यथा सर्वथा अदहनरूप होने पर पृथ्वीआदि से भिन्न न रहने के कारण वह जलद्रव्यरूप में सुरक्षित न रह कर पृथ्वीआदि द्रव्यरूप बन जाने की आपत्ति हो सकती है । इसलिये जलादि अदहन द्रव्य में अनेकान्त लब्धप्रसर है, कथंचिद् अदहनरूप है और कथंचिद् अदहनरूप नहीं है ॥३०॥
* भाव मात्र में अनेकान्त की व्यापकता पर संदेह-समाधान * शंका :- अनेकान्त को सर्वव्यापक मानने पर यह विपदा है कि प्रत्येक द्रव्य तद्र्व्य और अतद्रव्य उभयरूप मानना पडेगा, फलतः जीवद्रव्य को अजीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्य को जीवद्रव्यस्वरूप मानना होगा
उत्तर :- ग्रन्थकार कहते हैं -
मूलगाथार्थ :- कुम्भ है वह जीवद्रव्य नहीं है, जीव है वह कुम्भ द्रव्यरूप नहीं है, अन्योन्य की विशेषापेक्षा से दोनों ही अद्रव्य हैं ॥३१॥
व्याख्यार्थ :- अग्नि में पकाया हुआ मिट्टी का कुम्भ निर्जीव होता है अतः वह स्वयं जीवद्रव्यरूप नहीं
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