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स्वरूपाभावः स्याद् इत्यत्राह
पञ्चम: खण्ड:
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गुणणिव्वत्तियसणा एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा ।
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जं तु जहा पडिसिद्धं दव्वमदव्वं तहा होई ॥३०॥ गुणेन सहनादिना निर्वर्त्तिता उत्पादिता संज्ञा अभिधानं येषां तेsपि दहन - पवनादय एवमेवाऽनेकान्तात्मका द्रष्टव्याः । तथाहि दाहपरिणामयोग्यं तृणादिकं दहतीति दहनः, तदपरिणतिस्वभावं स्वात्माकाशाऽप्राप्तवज्राण्वादिकं न दहतीति । तेन यद् द्रव्यं यथा दहनरूपतया प्रतिषिद्धं तद् अद्रव्यं अदहनादिरूपम् तथा = भजनाप्रकारेण 'स्याद् दहनः स्यान्न' इति भवति ततो नाडव्यापी अनेकान्तः ।
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तथा ‘अदहन:’ इत्यत्राप्यनेकान्तः । तथाहि – यदुदकद्रव्यं यथा दहनरूपेण प्रतिषिद्धं 'दहनो है, दो विरुद्ध धर्म का उल्लेख ही नहीं है तो अनेकान्त कैसे ?
उत्तर :- (एक ही परिणाम में गमनत्व और अगमनत्व ऐसे दो परस्पर विरुद्ध धर्मों के समावेश का निर्देश कर के शंकाकार ने स्वयं ही अनेकान्त सिद्ध कर दिया है फिर भी) व्याख्याकार कहते हैं - अविवक्षित दिशाओं में कुछ काल के बाद जब अगमन का भंग कर दिया जायेगा तब अविवक्षित दिशा में अगमनाभाव तो रहेगा किन्तु अनेकान्तस्वीकार न करने पर उस वक्त विवक्षितदिशा में गमन तो नहीं मान सकेंगे क्योंकि अविवक्षितदिशा में गति - अभाव का अभाव प्रतिनियत दिशा में गति के अभावरूप हो जाने से विवक्षितदिशा में गति के साथ विरुद्ध होने पर एक द्रव्य में एकान्तवाद में वे दोनों नहीं रह पायेंगे, फलतः उस वक्त प्रतिनियत दिशा में भी गति का अभाव प्रसक्त होगा । यदि इस अनिष्ट से बचने के लिये उस वक्त प्रतिनियत दिशा में गति मान लेंगे तब तो एक द्रव्य में अविवक्षित दिग्अगमन और प्रतिनियत दिशा में गमन ऐसे पृथक् पृथक् विरुद्ध
धर्मों का समावेश मान लेने से अनेकान्त की व्यापकता स्वतः सिद्ध हो जायेगी । तात्पर्य यह है कि यदि अविवक्षितदिशा में अगमन और प्रतिनियतदिशा में गति इन को एक ही माना जाय तो अविक्षितदिशा में अगमन का अभाव होने पर प्रतिनियतदिशा में गति का भी अभाव प्रसक्त होगा, वह तो किसी को मान्य नहीं हो सकता । तब अविवक्षितदिशा में अगमन और प्रतिनियत दिशा में गति इन दोनों को एक द्रव्य में स्वीकार करना ही होगा, फलतः अनेकान्त की व्यापकता सिद्ध हो जायेगी ||२९||
का० ३०
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* निषेध्यरूप से द्रव्य भी अद्रव्य है
प्रश्न :- दहनक्रियाकारक होने से 'दहन' कहा जाता है, पवनक्रिया (धावन) कारक होने से 'पवन' कहा जाता है । अब यहाँ यदि अनेकान्त प्रवेश होगा तो दहन में अदहनरूपता का और पवन में अपवनरूपता का, यानी विरुद्ध धर्म का प्रवेश होगा, उस का नतीजा दहनादि के दाहकत्वादिस्वरूप का भंग प्रसक्त होगा । इसका निराकरण कैसे करेंगे ?
उत्तर :- ग्रन्थकार उत्तर में कहते हैं।
मूलगाथार्थ उसी प्रकार (गति आदि की भाँति ), गुणप्रेरित संज्ञावाले दहनादि भी अनेकान्तस्वरूप समझ लेना । जो द्रव्य जिस रूप से प्रतिषिद्ध है उस रूप से वह अद्रव्य होता है ||३०||
व्याख्यार्थ :- अग्नि में दाहकारकता गुणधर्म है और वायु में पवनक्रिया गुणधर्म होता है इसलिये उन
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