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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् दव्वस्स ठिई जम्म-विगमा य गुणलक्खणं ति वत्तव्वं ।
एवं सइ केवलिणो जुज्जइ तं णो उ दवियस्स ॥२३॥ ___ द्रव्यस्य लक्षणं स्थितिः, जन्म-विगमौ लक्षणं गुणानाम्, एवं सति केवलिनो युज्यते एतल्लक्षणम् तत्र 'किल केवलात्मना स्थिते एव चेतनाऽचेतनरूपा अन्ये अर्था ज्ञेयभावेनोत्पद्यन्ते, अज्ञेयरूपतया च नश्यन्ति । न तु द्रव्यस्याण्वादेर्लक्षणमिदं युज्यते, न हि अणौ रूपादयो जायन्ते अत्यन्तभिन्नत्वात् गव्यश्वादिवत् । अथवा केवलिनोऽपि सकलज्ञेयग्राहिणो नैतल्लक्षणं युज्यते न चापि द्रव्यस्य अचेतनस्य, गुण-गुणिनोरत्यन्तभेदेऽसत्त्वापत्तेः - असतोश्च खरविषाणादेरिव लक्षणाऽसम्भवादिति ॥२३॥
"दव्वत्थंतरभूया मुत्ताऽमुत्ता य ते गुणा होज्ज । जइ मुत्ता परमाणू णत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥२४॥
* द्रव्य और गुण के लक्षण में दोषोद्भावन * भेदवादी ने आठवीं गाथा में द्रव्य और गुण के भिन्न भिन्न लक्षण को ध्यान में रख कर उन का भेद बताया था, किन्तु ९वीं गाथा से द्रव्य और गुण में ऐक्यबोध से उस में प्रत्यक्ष बोध का प्रदर्शन किया गया था । अतः वह भेदवादी नया लक्षण प्रस्तुत करता है और ग्रन्थकार उसमें असंगति दिखाना चाहते हैं - पूर्वार्ध से लक्षण और उत्तरार्ध से उस में असंगति दिखायेंगे - ___ मूलगाथार्थ :- द्रव्य का लक्षण स्थायित्व और गुण का लक्षण उत्पत्ति-विनाश बतायेंगे तो वह केवली में घटेगा (अथवा उसमें तो नहीं घटेगा) किन्तु द्रव्य में नहीं घटेगा ॥२३॥
व्याख्यार्थ :- यदि अभेदवादी ऐसा लक्षण दिखावे कि द्रव्य का लक्षण स्थायित्व है, यानी वह सदा अवस्थित होता है । गुण का लक्षण है उत्पत्ति-विनाश, यानी वे कभी उत्पन्न हो कर विनष्ट हो जाते हैं - तो इस में द्रव्य के लक्षण में अव्याप्ति दोष आयेगा । मतलब यह है कि केवलज्ञानी के आत्मद्रव्य में यह लक्षण घट सकेगा क्योंकि दर्पणवत् केवली के रूप में वह स्थायी रहता है और उन में प्रतिबिम्बित होने वाले सारे जगत के जड-चेतन पदार्थ (जिन में अन्य द्रव्य भी शामिल हैं वे) प्रतिक्षण अज्ञेयरूप से नष्ट हो कर ज्ञेयरूप से प्रतिक्षण उत्पन्न होते रहते हैं, इस लिये अन्य किसी भी ज्ञेय द्रव्य में वह स्थायित्वरूप लक्षण नहीं घटेगा । अणु आदि द्रव्यों में भी द्रव्य का लक्षण नहीं घट सकता, क्योंकि गाय के गर्भ में जैसे अत्यन्तभेद के कारण अश्व की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही ओकान्तभेदपक्ष में अत्यन्तभिन्न रूप-रसादि गण अणद्रव्य के गर्भ में उत्पन्न नहीं हो पायेंगे; फलत: गुणशून्यता के कारण उस में स्थायित्वरूप लक्षण भी नहीं घटेगा । ____ अथवा व्याख्याकार इस गाथा के उत्तरार्ध की दूसरे ढंग से, व्याख्या कर दिखाते हैं कि केवली द्रव्य में भी यह स्थायित्व लक्षण संगत नहीं होगा भले ही वह सकल ज्ञेय वस्तु का प्रकाशक हो, तथा अचेतनद्रव्य में भी वह लक्षण नहीं घट सकेगा । कारण, लक्षणभेद से अगर गुण-गुणि का एकान्त भेद मानने जायेंगे तो उन में असत्त्व की आपत्ति आयेगी. तब लक्षण भी क्या संगत होगा ? जो गर्दभसींग की तरह असत है उस में कभी भी कोई लक्षण यानी सत्त्वव्याप्य धर्मविशेष का सम्भव ही नहीं होता ॥२३॥ - यशोविजयवाचकैस्तु ‘अत्रोत्तरम्' इत्यवतरणिका चतुर्विंशतिगाथाया निर्दिष्टा
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