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पञ्चमः खण्डः - का० २४
द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिनः द्रव्यादर्थान्तरभूतगुणा मूर्ता अमूर्ता वा भवेयुः ? यदि मूर्ताः, परमाणवो न तर्हि परमाणवो भवन्ति, मूर्तिमद्रूपाधारत्वात् अनेकप्रदेशिकस्कन्धद्रव्यवत् । अथाऽमूर्ताः अग्रहणं तेषाम् अमूर्तत्वात् आकाशवत् । ततो द्रव्य-गुणयोः कथंचिद् भेदाऽभेदावभ्युपगमनीयौ अन्यथोक्तदोषप्रसक्तेः । तथाहि - द्रव्य-गुणयोः कथंचिद् भेदः यथाक्रममेकानेकप्रत्ययावसेयत्वात्,
* उपाध्यायजीकृत अवतरणिका की तुलना * यहाँ इस संदर्भ में ध्यान में लेने जैसी बात यह है कि २३वीं गाथा की अवतारिका और तेवीसवीं गाथा की व्याख्या से यह फलित होता है कि २३ वी गाथा में भेदवादी पूर्वार्ध से नया लक्षण प्रस्तुत करता है
और अभेदवादी उत्तरार्ध से उस में दोषारोपण करते हैं । फिर २४वीं गाथा की व्याख्याकार ने कोई अवतरणिका नहीं की है और उसकी व्याख्या में द्रव्यभिन्न-गुणवादी के मत में और दोषारोपण किया गया है । दूसरी ओर,
___ श्रीमद् उपाध्यायजीने अनेकान्तव्यवस्थाग्रन्थ में (प्रताकार पृष्ठ ८३/१) २३वीं गाथा की अवतरणिका इस ढंग से बतायी है कि भेदवादी द्रव्य-गुण के लक्षण में २३वीं समूची गाथा से सिर्फ अनुपपत्ति ही दिखाता है; मतलब वह पूर्वार्ध से अभेदवादी की ओर से आशंकित लक्षण का प्रदर्शन करता है और उत्तरार्ध से उस में स्वयं ही दोषारोपण करता है । बाद में कहते हैं कि द्रव्यभिन्नगुणवादी ने जो कहा है उस का जवाब २४वीं गाथा में ग्रन्थकार दिखा रहे हैं । इस तरह व्याख्याकार और श्री उपाध्यायजी महाराज २३वीं गाथा की व्याख्या अलग ढंग से करते हैं । किन्तु उपाध्यायजी महाराज की व्याख्या में यह बात अखरती है कि भेदवादी जब लक्षण का खंडन करता है तब कैसे यह कह सकता है कि गुण-गुणि में अत्यन्त भेद होने पर असत्त्व की आपत्ति आयेगी ? वह स्वयं तो भेदवादी है और भेदवाद में आपत्ति दिखाकर उक्त लक्षण में दोषारोपण कैसे करता है ? ऐसे ही अत्यन्त भेद के आधार पर अणु में रूपादि की उत्पत्ति का भी वह निषेध करता है, यह भी स्वमत-कुठारप्रहार जैसा हो जाता है । - इस के सामाधान में कह सकते हैं कि भेदवादी गुण-गुणी के अत्यन्त भेदपक्ष में असत्त्व की आपत्ति का अभ्युपगमवाद से आधार लेकर ही द्रव्य के लक्षण की असंगति दिखाना चाहता है। किन्तु यह समाधान अथवा उक्त प्रश्न कितना उचित या अनुचित है यह विचार अध्येता के ऊपर छोड दिया जाता है ।
* भेदपक्ष में गुणों के मूर्त-अमूर्त विकल्प * मूलगाथार्थ :- द्रव्य से अर्थान्तरभूत गुण मूर्त्त होंगे या अमूर्त ? यदि मूर्त होंगे तो परमाणु न होंगे, अमूर्त होंगे तो ग्रहण नहीं होगा ॥२४॥
२३ वी गाथा के उत्तरार्ध से भेदवादी के मत में आपत्ति प्रदर्शन के बाद २४ वीं गाथा में नयी आपत्ति का प्रदर्शन करते हैं - 'गुण द्रव्य से अर्थान्तरभूत होते हैं' ऐसी मान्यतावाले को यह प्रश्न है कि द्रव्य से अर्थान्तरभूत गुणों को आप मूर्त मानेंगे या अमूर्त ? यदि मूर्त मानेंगे तो परमाणु के परमाणुत्व का भंग हो जायेगा । कारण, वे भी मूर्त रूपादि गुणों के आश्रय बन जायेंगे और जो मूर्त्तिमत् रूपादि का आश्रय होता है वह अवश्य अनेक प्रदेशवाला स्कन्ध (= अवयवी) द्रव्य ही होता है न कि परमाणु । यहाँ मूर्त्त का अर्थ है चाक्षुषादिप्रत्यक्षगोचर । परमाणु तो चाक्षुषगोचर नहीं होता, यदि वह भी चाक्षुषादि गोचर रूपादि का आश्रय होगा तब वह परमाणु कैसे कहा जायेगा ? स्कन्ध (= अवयवी) द्रव्य ही चाक्षुषगोचर होता है अत: वे परमाणु भी स्कन्ध में ही अन्तर्भूत हो जायेंगे ।
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