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________________ पञ्चमः खण्डः - का० २२ दितसम्बन्धिविशेषोऽवगतः । द्रव्याद्वैतवादिनस्तु न सम्बन्धिविशेषः नापि सम्बन्धविशेषः संगच्छत इति कुतो रसनादिविशेषसम्बन्धजनितो रसादिविशेषपरिणामः ? ॥२१॥ नन्वनेकान्तवादिनोऽपि रूप-रसादेरनन्त-द्विगुणादिवैषम्यपरिणतिः कथमुपपन्ना ? इत्याह - भण्णइ विसमपरिणयं कह एवं होहिइ त्ति उवणीयं । तं होइ परणिमित्तं ण व त्ति एत्थऽत्थि एगंतो ॥२२॥ शीतोष्णस्पर्शवदेकत्रैकदा विरोधाद् भण्यते एकत्र आम्रफलादौ विषमपरिणतिः कथं भवति ? इति परेण प्रेरिते उपनीतं = प्रदर्शितमाप्तेन - तद् भवति परनिमित्तम् - द्रव्यक्षेत्रकालभावानां सहकारिणां वैचित्र्यात् कार्यमपि वैचित्र्यमासादयति तद् = आम्रादि वस्तु विषमरूपतया परनिमित्तं भवति । न वा 'परनिमित्तमेव' इत्यत्राप्येकान्तोऽस्ति, स्वरूपस्यापि कथंचिनिमित्तत्वात् । तन्न द्रव्याद्वैतेकान्तः सम्भवी ॥२२॥ द्रव्य-गुणयोर्भेदैकान्तवादिना प्राक् प्रदर्शिततल्लक्षणस्यैकत्वप्रतिपत्त्यध्यक्षबाधितत्वाद् लक्षणान्तरं वक्तव्यम् तदाह - व्याख्यार्थ :- कथंचिद् भेदवादी के मत में सामान्य से अधिक विशेष भी स्वीकृत है इस लिये सम्बन्धविशेष और उस के द्वारा सम्बन्धिविशेष की बात यथार्थ घट सकती है । जैसे - पुरुष के साथ दण्डादि विशेषसम्बन्धी से जन्य संयोगरूप सम्बन्धविशेष की महिमा से 'दण्डी' स्वरूप सम्बन्धिविशेष की प्रसिद्धि सुविदित है । किन्तु एकान्त अद्वैतवाद में समस्या यह है कि विशेष जैसा कुछ है ही नहीं, न सम्बन्धविशेष है न सम्बन्धिविशेष, इस स्थिति में रसनादि इन्द्रियविशेष के सम्बन्धविशेष से आम्रफल में विशिष्ट मधुर रसादिपरिणाम की बात को अवकाश ही कहाँ है ? ॥२१॥ * परनिमित्त वैषम्यपरीणाम की संगति * प्रश्न - अनेकान्तवाद में, रूप या रसादि में जो अनन्तगुणकृष्णता अथवा दुगुनी मधुरता इत्यादि वैषम्य परिणति दीखाई देती है उस का क्या समाधान है ? उत्तर में प्रश्न का अनुवाद करके कहते हैं - मूलगाथार्थ :- पूछा जाय कि वह विषम परिणाम कैसे होता है – इसके उत्तर में कह दिया है कि वह परनिमित्त होता है, अथवा 'वैसा ही है' ऐसा एकान्त भी नहीं है ॥२२॥ व्याख्यार्थ :- प्रश्नकार का पूछने का आशय यह है कि एक काल में एक ही स्थान में शीत और उष्ण स्पर्श का यानी विषमस्पर्शों का अस्तित्व विरोधग्रस्त है इसलिये यहाँ भी प्रश्न खडा होता है कि आप जो विषमपरिणाम एक ही आम्रफलादि द्रव्य में दिखाते हैं वह कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के सामने ग्रन्थकार कहते हैं कि आप्तपुरुषों ने यह दिखाया है कि एक ही द्रव्य में परनिमित्त से, यानी पर द्रव्य अथवा क्षेत्र, काल या भावरूप सहकारीयों की विषमता से विषमपरिणामरूप कार्यवैचित्र्य हो सकता है । यहाँ भी ऐसा एकान्तवाद नहीं है कि 'परनिमित्त से ही होता है,' कभी कभी उस विषमपरिणामात्मक विचित्र कार्य में अपना तथास्वभावात्मक स्वरूप ही निमित्त होता है । आम्रफल कभी दूसरे सडे हुए फल के संसर्ग से सड जाता है और कभी अपने आप भी सडता है । निष्कर्ष, एकान्तद्रव्याद्वैतवाद (एकान्त अभेदवाद) सम्भव नहीं है ॥२२।। * अथ द्रव्य-गुणयोर्भेदैकान्तवादिनो द्रव्यगुणलक्षणानुपपत्तिमुद्भावयन्ति इत्यनेकान्तव्यवस्थाग्रन्थे यशोविजयवाचककृतावतरणिका। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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