SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ तथाप्रसक्तेरिति भावः ॥ १९ ॥ अत्राहाभेदैकान्तवादी ― भण्णइ संबंधवसा जइ संबंधित्तणं अणुमयं ते । णणु संबंधविसेसे संबंधिविसेसणं सिद्धं ॥ २० ॥ सम्बन्धसामान्यवशाद् यदि सम्बन्धित्वसामान्यम् अनुमतं तव, ननु सम्बन्धविशेषद्वारेण तथैव सम्बन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यते ? ॥ २० ॥ सिद्धान्तवाद्याह - श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् जुज्जर संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण एयं । णयणाइविसेसगओ रूवाइविसेसपरिणामो ॥२१॥ सम्बन्धविशेषवशाद् युज्यते सम्बन्धिविशेषः यथा दण्डादिसम्बन्धिविशेषजनितसम्बन्धविशेषसमासा कहा जा सकता है किंतु रमेश के पिताजी महेश के पिताजी से बडे हैं या छोटे हैं ऐसी जो विषमता है। वह सिर्फ पुत्रादि के सम्बन्ध से कैसे स्थान पायेगी ? यदि कहें कि यह मधुर अथवा काला है ऐसा बोध सामान्य है जो वास्तविक है, किन्तु 'यह दुगुना मधुर अथवा अनन्तगुना काला है' ऐसा बोध या तो औपचारिक है अथवा मिथ्या है, कारण हैं कि विशेष ही वास्तव है, विशेषबोध ही सम्यक् है । नहीं है ||१९|| सामान्य वास्तव है, विशेष अवास्तव है तो इस से उल्टा भी कह सकते सामान्य अवास्तव है, इसलिये सामान्यबोध मिथ्या अथवा औपचारिक है जब कि इस का क्या जवाब है ?! तात्पर्य, सामान्यवादी का एकान्त अभेदपक्ष निर्दोष Jain Educationa International * सम्बन्धविशेष से सम्बन्धिविशेष की शंका का समाधान * एकान्त अभेदवादी कहता है, सुनो जवाब मूलगाथार्थ :- कहा जाता है, सम्बन्ध के आधार पर अगर सम्बन्धित्व में आप की सम्मति है तो सम्बन्धविशेष के आधार पर संबंधिविशेष सिद्ध हो जाता है ||२०|| - 11 व्याख्यार्थ :- नेत्रादि इन्द्रियों के सामान्य सम्बन्ध से अगर रस, रूप आदि सामान्य सम्बन्धि का आप स्वीकार करते हैं तो इन्द्रियों के सम्बन्धविशेष के आधार पर दुगुना मधुर रस तथा अनन्त गुण कृष्णद्रव्यरूप विशेष सम्बन्धीयों को स्वीकार करने में आप क्यों हिचकिचाते हैं ? मतलब यह है कि सामान्य इन्द्रियसम्बन्ध जो रस - रूपादि के व्यवहार का प्रयोजक है वही इन्द्रियसम्बन्ध विशेषरूप से सम्बन्धिविशेष के व्यवहारों का भी प्रयोजक हो सकता है अतः द्रव्याद्वैत मानने में कोई आपत्ति नहीं है । इन्द्रिय के सामान्य सम्पर्क से जो द्रव्य ‘रस’ संज्ञा प्राप्त करता है वही द्रव्य विशेषसम्पर्क से 'दुगुना मधुर' संज्ञा प्राप्त कर लेता है, द्रव्य में कोई भी फर्क नहीं ॥२०॥ इस जवाब के सामने सिद्धान्तवादी कहता है मूलगाथार्थ :- सम्बन्ध के आधार पर सम्बन्धिविशेष की बात घट सकती है किन्तु (अद्वैतवाद में) नयनादिगत विशेष और उससे रूपादि परिणामविशेष की बात संगत नहीं है ||२१|| For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy