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पञ्चमः खण्डः का० १६
५-३७] इति विरुध्यते, युगपदयुगपद्भाविपर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् तस्य । न चैवमपि मतुप्प्रयोगाद् द्रव्यविभिन्नपर्यायसिद्धिः, नित्ययोगेऽत्र मतुब्विधानात् द्रव्यपर्याययोस्तादात्म्यात् सदाऽविनिर्भागवर्त्तित्वात् अन्यथा प्रमाणबाधोपपत्तेः । संज्ञा - संख्या - स्वलक्षणाऽर्थक्रियाभेदाद् वा कथंचित् तयोरभेदेऽपि भेदसिद्धेर्न मतुबनुपपत्तिः ॥१५॥
एवं द्रव्यपर्याययोर्भेदैकान्तप्रतिषेधेऽभेदैकान्तवाद्याह
एयंतपक्खवाओ जो उण दव्व-गुण-जाइभेयम्मि । अह पुव्वपडिकुट्ठो उआहरणमित्तमेयं तु ॥ १६ ॥
के लिये ही 'गुण' शब्द प्रयोग है और अयुगपद्भावि यानी क्रमभावि पर्यायों के लिये पर्यायशब्द का प्रयोग किया गया है, इस प्रकार पर्यायविशेष ही गुण हैं यह सिद्ध होता है ।
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यदि यह कहा जाय
सूत्रकार महर्षि ने गुण- पर्याय समास के ऊपर वत्-प्रत्यय का प्रयोग किया है उस से सिद्ध होता है कि द्रव्य और पर्याय अलग अलग है, क्योंकि भेद में ही वत् ( मत्) प्रत्यय लगाया जाता है । तो यह गलत है क्योंकि 'विशिष्टस्वरूपवत् द्रव्यम् विशिष्टस्वरूपवाला द्रव्य' ऐसे प्रयोग में जैसे
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स्वरूप और द्रव्य में भेद न होने पर भी द्रव्य और उसके स्वरूप का नित्ययोग वत्प्रत्यय से सूचित होता है, वैसे ही यहाँ भी द्रव्य और पर्याय में भेद न होने पर भी उनका नित्ययोग सूचित करने के लिये वत् प्रत्यय लगाया गया है । द्रव्य और पर्याय में नित्य ही तादात्म्य रहता है, परस्पर मिल कर ही रहते हैं, इसलिये नित्ययोग कहने में कोई बाध नहीं है । यदि द्रव्य - पर्याय के बीच भेद मानेंगे तो उसमें 'पानी का बर्फ हो गया' इत्यादि जो अभेदग्राही प्रतीति होती है उस का बाध जरूर प्रसक्त होगा । अथवा दूसरा समाधान यह है कि 'द्रव्य' और 'पर्याय' इस प्रकार संज्ञाभेद, एक द्रव्य के असंख्य पर्याय इस प्रकार संख्याभेद, द्रव्य और पर्याय के अपने लक्षणों में भेद तथा दोनों की अर्थक्रिया में भेद, इतना भेद होने से उन दोनों में कथंचिद् अभेद के रहते हुए भी कथंचिद् भेद सिद्ध है, उस कथंचिद् भेद को सूचित करने के लिये 'वत्' प्रत्यय का प्रयोग करने में कोई असंगति नहीं है ||१५||
* एकान्त अभेदवादी की आशंका *
उपरोक्त चर्चा में द्रव्य और पर्याय के एकान्त भेद का निषेध किया है, अब यहाँ अभेद एकान्तवादी आशंका व्यक्त करता है
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मूलगाथाशब्दार्थ :- द्रव्य-गुण-जाति के भेद में जो एकान्त - पक्षपात है उसका पहले निषेध हो चुका है, यहाँ मात्र उदाहरण ही कहना है ।। १६ ।। पिता-पुत्र भतीजा - भाणजा - भ्राता के साथ एक पुरुष का सम्बन्ध होता * तस्येत्यनन्तरं श्रीयशोविजयवाचकैरनेकान्तव्यवस्थायामेवमभाणि ‘सहभाविधर्मवाचकगुणशब्दसमभिव्याहृतस्य पर्यायशब्दस्य धर्ममात्रवाचकस्यापि ‘गो-बलिवर्द' न्यायेन तदतिरिक्तधर्मप्रतिपादकत्वे दोषाभावात् । न हि काल्पनिको गुण - पर्याययोर्भेदो वास्तवं तदभेदं विरुणद्धि । कल्पनाबीजं च तत्र तत्र प्रदेशे व्युत्पत्तिविशेषाधानमेव । अत एव “गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे" (उत्तरा० २८- ६ ) इत्युत्तराध्ययनवचनं 'दव्वणामे गुणणामे पज्जवणामे' इत्याद्यनुयोगद्वार (सू० १२३) वचनं च शिष्यव्युत्पत्तिविशेषाय काल्पनिकगुणपर्यायभेदाभिधानपरमेव, स्वाभाविकतद्भेदाभिधानपरत्वे तु गुणार्थिकनयप्रसंगात् । न च 'नाणदंसणट्टयाए दुवे अहं' इत्याद्यागम एव गुणार्थिकनयप्रतिपादक इति शंकाशे (?ले)शोऽपि विधेयः, अनेकीकरणस्य पर्यायार्थगोचरत्वादस्येति दिक् ।
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