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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
पिउ पुत्त - णत्तु भव्वय भाऊणं एगपुरिससम्बंधो ।
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णय सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥ १७ ॥ जह संबंधविसिट्ठो सो पुरिसो पुरिसभावणिरइसओ । तह दव्वमिंदियगयं रूवाइविसेसणं लहइ ॥ १८॥
एकान्तव्यतिरिक्ताभ्युपगमवादो यः पुनर्द्रव्य-गुण - क्रियाभेदेषु स यद्यपि पूर्वमेव प्रतिक्षिप्त:, भेदैकान्तग्राहकप्रमाणाभावात् अभेदग्राहकस्य च ' सर्वमेकं सदविशेषात् विशेषे वा वियत्कुसुमवदसत्त्वप्रसंगात्' इति प्रदर्शितत्वात् । तथापि तत्स्वरूपे दाढर्योत्पादनार्थमुदाहरणमात्रमभिधीयते ॥१६॥
पितृ - पुत्र नप्तृ - भाग्नेय-भ्रातृभिर्य एकस्य पुरुषस्य संबन्ध: तेनासावेक एव पित्रादिव्यपदेशमासादयति । न चासावेकस्य पिता पुत्रसम्बन्धतः इति शेषाणामपि पिता भवति ||१७||
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यथा प्रदर्शितसम्बन्धविशिष्टः पित्रादिव्यपदेशमाश्रित्यासी पुरुषरूपतया निरतिशयोऽपि सन् तथा द्रव्यमपि घ्राण-रसन-चक्षुस् - त्वक् - श्रोत्रसम्बन्धमवाप्य रूप-रस- गन्ध - स्पर्श - शब्दव्यपदेशमात्रं लभते है । एक का पिता वह शेष सभी का पिता नहीं होता ||१७|| पुरुषरूप से निरतिशय भी जैसे वह पुरुष सम्बन्धविशिष्ट होता है वैसे इन्द्रियसम्बद्ध एक ही द्रव्य रूपादिविशेषव्यवहार को प्राप्त करता है || १८ ||
व्याख्यार्थ :- द्रव्य-गुण-जाति में परस्पर भेद है ऐसा एकान्तभेद स्वीकारपक्ष जो है वह पहले ही निरस्त किया गया है; जैसे कि भेद का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है, जब कि अभेदग्रहण के लिये यह अनुमानप्रयोग दिखा चुके हैं कि 'सब कुछ एक है क्योंकि सत् तत्त्व से अविशिष्ट है' । इस के विपर्यय में यह बाधक भी दिखाया गया है कि 'यदि वस्तु मात्र सत् तत्त्व से अविशिष्ट न हो कर व्यतिरिक्त होगी तो गगनपुष्प की तरह उस में असत्त्व प्रसक्त होगा ।' इस प्रकार एकान्तभेद पक्ष का निषेध तो किया जा चुका है, उसी के दृढीकरण हेतु सिर्फ उदाहरण सूचित करते हैं कि
एक ही पुरुष के साथ पिता का, पुत्र का भतीजा का, भाणजा का और भाई का इस प्रकार अनेकों का सम्बन्ध होता है और इन के जरिये वह एक ही पुरुष पुत्र, पिता, चाचा, मामा, भाई कहा जाता है, सम्बन्ध भेद से यहाँ व्यक्तिभेद नहीं होता । यदि एक पुरुष को एकान्तरूप से पिता या पुत्र माना जाय तो वह एक व्यक्ति का पिता (एकान्त पितारूप ) होने से शेष सभी व्यक्तियों का पिता बन जायेगा इस अनिष्ट प्रसंग के विपर्यय की सूचना देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि किसी पुरुष का एक व्यक्ति के साथ पुत्रत्व का सम्बन्ध होने पर उस व्यक्ति का पिता होने मात्र से सारे जगत् का, शेष सभी व्यक्तियों का पिता नहीं हो
जाता ।
वह पुरुष पुरुषरूप से निरतिशय यानी साधारण व्यक्तिरूप होने पर भी पुत्रादि के सम्बन्ध से विशिष्ट हो कर 'पिता' आदि सम्बोधन का सौभाग्य प्राप्त करता है, वैसे ही रूपि द्रव्य घ्राणेन्द्रिय- रसनेन्द्रिय-नेत्रेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय के सम्पर्क से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द के सम्बोधनों को प्राप्त करता है, हालाँकि वह द्रव्य द्रव्यरूप से एक अविशिष्ट यानी सामान्य है । तात्पर्य यह है कि जैसे देवताओं के स्वामी के लिये
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देशी० ना० ६ १०० ।
१. ' भव्वो बहिणीतणए' 'भव्वो भागिनेयः ' २. भग्नी = भगिनी ( पृषो० साधुः), (सं० हिं० कोशे), भग्न्या अपत्यं भाग्नेयः ।
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