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________________ पञ्चमः खण्डः - का० १४ गुणद्वारेणाऽपि देशनायां भगवतः प्रवृत्तिरुपलभ्यते इति न गुणाभाव इत्याह - जंपन्ति अत्थि समये एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो । रूवाई परिणामो, भण्णइ तम्हा गुणविसेसो ॥१३॥ जल्पन्ति द्रव्य-गुणान्यत्ववादिनः - विद्यते एव सिद्धान्ते 'एगगुणकालए दुगुणकालए' [भगवती सू० ५-७-२१७] इत्यादिः रूपादौ व्यपदेशः तस्माद् रूपादिर्गुणविशेष एवेत्यस्ति गुणार्थिको नयः उपदिष्टश्च भगवतेति ॥१३॥ अत्राह सिद्धान्तवादी - गुणसहमंतरेणावि तं तु पज्जवविसेससंखाणं । सिज्झइ णवरं संखाणसत्यधम्मो 'तइगुणो'त्ति ॥१४॥ प्रतिपादन नहीं किया । (मूल गाथा में 'गुण' शब्द है जिस के लिये व्याख्या में ‘गुणार्थिक' ऐसा सीधा निर्देश कर दिया गया है ।) किन्तु भगवंत ने तो 'पर्यायनय' कह कर ही देशना वरसायी है, इसलिये ‘गुणार्थिक' नय निरवकाश है ।।१२।। * गुणार्थिक नय भगवदुपदिष्ट होने की आशंका * आशंका :- 'गुण' शब्दप्रयोग के द्वारा भी भगवान की देशनाप्रवृत्ति उपलब्ध होती है, अत: द्रव्य और पर्याय से अतिरिक्त गुण का सर्वथा अभाव नहीं है - इसी आशंका को ग्रन्थकार कहते हैं - मूलगाथा शब्दार्थ : - समय में एकगुण दसगुण अनंतगुण रूपादि परिणाम कहा गया है इसलिये गुणविशेष कह सकते हैं ॥१३॥ व्याख्यार्थ :- द्रव्य और गुण का भेद बताने वाले कहते हैं कि भगवती आदि सूत्रों में रूपादि के लिये ‘एकगुणकाला दुगुणकाला, दस गुण काला, अनन्तगुण काला' ऐसा शब्दनिर्देश किया गया है । इस से फलित होता है कि रूपादि (जिस को आप पर्याय दिखाना चाहते हैं वह) गुणविशेषस्वरूप ही है । इसीलिये पर्याय को बाजु पर रख कर वहाँ गुणशब्द का निर्देश, तीसरे गुणार्थिक नय के प्रतिपादन के विना असंगत हो जाने से, अर्थापत्ति से यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवान ने तीसरे गुणार्थिक नय का भी उपदेश किया है ॥१३॥ * सिद्धान्त में गुणशब्द गणितशास्त्रोक्त्तधर्मसूचक * मूलगाथाशब्दार्थ :- गुणशब्द के विना भी पर्यायविशेष संख्या सिद्ध है, सिर्फ इतना गुणा' इस प्रकार गणितशास्त्रधर्म है ॥१४॥ * अनेकान्तव्यवस्थाग्रन्थे श्रीयशोविजयवाचकैरेवं कृताऽवतरणिका - 'ननु पर्यायशब्दः क्रमभाविधर्मवाचक एव, गुणशब्दश्च सहभाविधर्मवाचक एव, तथा च गुणाः पर्यायेभ्योऽतिरिच्यन्ते पर्यायातिरिक्तगुणाभिधानान्यथानुपपत्त्या च गुणार्थिकनयोऽपि भगवताऽर्थादुपदिष्ट एवेत्याशंकते - + “संखाणे.... सुपरिनिहिए'' - (व्याख्या) - ‘संखाणे'त्ति गणितस्कन्धे सुपरिनिष्ठिते इति योगः' (भग०श०२ उ०१ सू० ९०)। ७ अनेकान्तव्यवस्थायां 'न उ गुणो त्ति' इतिपाठान्तरनिर्देशोऽपि विद्यते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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