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________________ २० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इत्यादिना पर्यायसंज्ञा नियमिता वर्णादिषु गौतमादिभ्यः व्याकृतास्ततः पर्याया एव वर्णादयो न गुणा इत्यभिप्रायः ॥११॥ अथ तत्र गुण एव पर्यायशब्देनोक्तः तुल्यार्थत्वात्, आगमाच्च ‘य एव पर्यायः स एव गुणः' [ ] इत्यादिकात् । एतदेवाह - परिगमणं पज्जाओ अणेगकरणं गुण त्ति तुल्लत्था । तह वि ण 'गुण'त्ति भण्णइ पज्जवणयदेसणा जम्हा ॥१२॥ ___ परि = समन्तात् सहभाविभिः क्रमभाविभिश्च भेदैर्वस्तुनः परिणतस्य गमनं = परिच्छेदो यः स पर्यायः, विषय-विषयिणोरभेदात् । अनेकरूपतया वस्तुनः करणं = करोतेर्ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानम् विषयविषयिणोरभेदादेव गुणः इति तुल्यार्थी गुण-पर्यायशब्दौ, तथापि न 'गुणार्थिकः' इत्यभिहितः तीर्थकृता, पर्यायनयद्वारेणैव देशना यस्मात् कृता भगवतेति ॥१२॥ ___गाथा-व्याख्यार्थ :- श्रीअरिहंत भगवानने अलग अलग भगवती-जीवाजीवाभिगम-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि सूत्रों में 'वण्णपज्जवेहिं (=वर्णपर्यवों से) गंधपज्जवेहिं (= गंधपर्यायों से)' इस तरह गुणसंज्ञा का प्रयोग छोड कर 'पर्यव' संज्ञा का प्रयोग किया है और इस तरह वर्णादि का पर्यायरूप से नियमन किया है। मतलब, गौतमआदि शिष्यों के समक्ष भगवान महावीरस्वामीने वर्णादि का पर्यायरूप से प्रतिपादन किया है इसलिये वर्णादि 'गुण' नहीं है । यह विपर्यय का अभिप्राय = भावार्थ है ॥११।। * पर्यायशब्द गुणशब्द समानार्थ हैं तो क्या ? * आशंका :- भगवती आदि सूत्रों में पर्याय' शब्द का प्रयोग वर्णादि गुणों के लिये ही किया गया है, क्योंकि 'पर्याय' और 'गुण' दोनों शब्द का अर्थ एक ही है । आगमवचन भी ऐसा मौजूद है कि 'जो पर्याय है वही गुण है' । अतः गुणात्मक पर्याय के लिये तीसरा गुणास्तिक नय क्यों न माना जाय ? आशंका का तात्पर्य यह है कि पर्याय शब्द संस्थानादि आकारस्वरूप पर्याय और वर्णादि गुण, दोनों अर्थ में प्रयुक्त है। उन में जो 'गुण' के अर्थ में प्रयुक्त ‘पर्याय' शब्द है वह गुणशब्द का समानार्थक है और अन्यपर्यायों से गुण को अलग सिद्ध करता है इसलिये उस के प्रतिपादक 'गुणास्तिक' नय की कल्पना करने में कोई औचित्यभंग नहीं है । इस आशंका का निर्देश और उस का समाधान करते हुए सन्मतिकार कहते हैं - __ मूलगाथा शब्दार्थ : - पर्याय परिगमनरूप है और गुण अनेककरणरूप है - ये दोनों अर्थ समान हैं। फिर भी 'गुण'० नहीं कहा जाता क्योंकि देशना पर्यायनय की है ॥१२॥ व्याख्यार्थ :- ‘परिगमन' शब्द में ‘परि' का अर्थ है सहभावि और कम्रभावी ऐसे अनेक प्रकार यानी अनेक भेद में परिणत वस्तु, उसका गमन यानी परिच्छेद अर्थात् बोध यह (ज्ञानात्मक) पर्याय है । यद्यपि 'उस बोध का विषय पर्याय है' - ऐसा कहना चाहिये किंतु विषय-विषयी के अभेदोपचार से बोध पर्याय है ऐसा कहना निर्बाध है । 'गुण' का अर्थ है एक वस्तु को अनेकरूप से करे, 'करे' यानी जाने । अर्थात् अनेकरूप से वस्तु का ज्ञान । ज्ञान का मतलब यहाँ ज्ञान का विषय समझना, क्योंकि यहाँ भी विषय-विषयी में अभेदोपचार किया है । उक्त रीति से, अनेक भेद में परिणत वस्तु (पर्याय) और अनेक रूप से ज्ञात होनेवाली वस्तु (गुण) - इन दोनों अर्थों में कोई भेद न होने से गुण-पर्याय शब्दयुगल तुल्यार्थक ही है । (आशंकाकार ने जो कहा वह बात ठीक है) फिर भी तीर्थंकरोंने कहीं भी 'गुण' यानी गुणार्थिक नय का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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