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पञ्चमः खण्डः का० ११
यदि पर्यायादन्यो गुणः स्यात् पर्यायार्थिकवद् गुणार्थिकोऽपि नयो वचनीयः स्यादित्याह दो उण णया भगवया दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठिया नियया ।
तो य गुणविसेसे गुणट्ठियणओ वि जुज्जंतो ॥ १० ॥
द्वावेव मूलनयौ भगवता द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिको नियमितौ । तत्रातः पर्यायादधिके गुणविशेषे ग्राह्ये सति तद्ग्राहकगुणास्तिकनयोऽपि नियमितुं युज्यमानकः स्यात्; अन्यथा अव्यापकत्वं नयानां भवेत् अर्हतो वा तदपरिज्ञानं प्रसज्येत ॥१०॥
न च भगवताऽसावुक्त इत्याह
जं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं । पज्जवसण्णा णियया वागरिया तेण पज्जाया ॥११॥
यतः पुनर्भगवता तस्मिंस्तस्मिन् सूत्रे 'वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं' [भगवती सू० १४-४-५१३] प्रत्यक्ष प्रतीति से पूर्वबाधित होने पर भी उन अनुमानों का प्रयोग किया जाता है । जैसे एक शाखा में उत्पन्न दो आम्रफल, एक अपक्क और दूसरा पक्क, प्रत्यक्ष आस्वादनप्रतीति से पता चल जाय कि एक खट्टा है और दूसरा मीठा है, इस प्रकार रसभेद की प्रत्यक्षप्रतीति के बाद यदि एकशाखाजन्यत्वरूप हेतु से समानरसात्मक साध्य का निर्देश कर के अनुमानप्रयोग किया जाय तो वह कालात्ययापदिष्ट यानी बाधित हो जाता है । इस प्रकार गुण-गुणी के एकान्तभेद का सम्भव न होने से, उस की बात को बाजु पर रख कर, गुणशब्द की समीक्षा करने दो गुणशब्द का प्रयोग पर्याय से अधिक यानी अतिरिक्त किसी चीज का निर्देश करता है या पर्याय का ही ? मूल ग्रन्थकार के प्रश्नात्मकविधान का फलित अभिप्राय यह है कि 'गुण' पर्याय से भिन्न नहीं है किन्तु पर्यायात्मक ही है, तब इस समीक्षा से स्पष्ट है कि पर्याय कथंचिद् द्रव्यात्मक होने से गुण भी कथंचिद् द्रव्यात्मक ही है, द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं है || ९ ||
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* गुणार्थिक नय क्यों नहीं बताया ? *
अलग
'गुण यदि पर्याय से भिन्न होता तो पर्यायार्थिकनय की तरह गुणार्थिक नय का भी निरूपण अवश्य किया जाता' इस विपक्ष बाधक तर्क के निरूपण के द्वारा ग्रन्थकार गुण - पर्याय की अभिन्नता दिखाते हैं मूलगाथा एवं व्याख्या का अर्थ श्री अरिहंत भगवानने भारपूर्वक यह नियम बताया है कि मूलनय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही हैं । नय के निरूपण में, यदि पर्याय से भी बढकर, यानी उससे स्वतन्त्र कोई 'गुण' संज्ञक विशेष चीज नय की ग्राह्य होती तो उसके ग्राहक के तौर पर उस नियमविधान में गुणास्तिक नय का प्रवेश कर के 'मूल नय तीन ही हैं' ऐसा नियमविधान दिखाना कर्त्तव्या था, उचित था । यदि ऐसा नहीं करते तो नयों का निरूपण गुण के बारे में अव्यापक यानी अपूर्ण रह जाता । अथवा नयनिरूपण करनेवाले अरिहंत भगवान को गुणास्तिकनय का ज्ञान नहीं था, ऐसी क्षति होती ॥ १०॥
* सूत्रों में वर्णादि के लिये 'पर्याय' शब्द का प्रयोग
गुणास्तिकनयापादन अथवा भगवंत में अज्ञानापादान रूप प्रसंगापादान १०वीं गाथा से कर के अब ११ वीं गाथा से उस के फलित विपर्यय का निर्देश करते हैं.
जीवाजीवाभिगम प्रतिप० ३ सू० ७८ तथा जम्बूद्वीप प्र० वक्ष० २ सू० ३६ ।
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