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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यम्' विशे० द० १-१-१५] 'द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोग-विभागेष्व-कारणमनपेक्षः' [वैशे० द. १-१-१६] इतिवचनात् सिद्धम् ॥८॥ एतत्परिहारायाह -
दूरे ता अण्णत्तं गुणसई चेव ताव पारिच्छं ।
किं पंजवाहिओ होज पज्जवे चेव गुणसण्णा ॥९॥ __ दूरे तावद् गुण-गुणिनोरेकान्तेनाऽन्यत्वम्-असम्भावनीयमिति यावत् – गुणात्मकद्रव्यप्रत्ययबाधितत्वाद् एकान्तगुणगुणिभेदस्य । न च समवायनिमित्तोऽयमभेदप्रत्ययः तस्य निषिद्धत्वात् । न चैकत्वप्रत्ययस्य प्रागुपन्यस्तानुमानबाधा, एकत्वप्रत्ययाध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनैकशाखाप्रभवत्वानुमानस्येव तस्य कालात्ययापदिष्टत्वात् । ततो गुण-गुणिनोरेकान्तान्यत्वस्याऽसम्भवात्, गुणशब्दे एव तावत् पारीक्ष्यमस्ति किं पर्यायादधिके गुणशब्दः ? उत पर्याय एव प्रयुक्त इति ? अभिप्रायश्च न पर्यायादन्यो गुणः, पर्यायश्च कथंचिद् द्रव्यात्मकः इति विकल्पः कृतः ॥९॥ दिखानेवाला जो ऐक्य अनुसंधायि प्रत्यक्ष प्रमाण है उस से दर्शन और स्पार्शन के एक विषयभूत द्रव्य का ग्रहण होता है । रूपादि के लिये कभी भी ऐसा एक प्रत्यक्ष नहीं होता कि 'जिस रूप को देखा था उसी का स्पर्श कर रहा हूँ... इत्यादि'; क्योकि रूप-रसादि (द्रव्य की तरह) दो इन्द्रियों से नहीं किंतु पृथक् पृथक् नियत इन्द्रियजन्य प्रतीति से गृहीत होते हैं । (रूप का चक्षु से, रस का जिह्वा से, गन्ध का घ्राणेन्द्रिय से
और स्पर्श का त्वचा से ग्रहण होता है) । कहा गया है कि 'द्रव्य दर्शनग्राह्य और स्पर्शनग्राह्य होता है (जब कि रूपादिगुण एक-एक इन्द्रिय ग्राह्य होते हैं) इत्यादि कथन से द्रव्य और गुण में असमानग्रहणता प्रसिद्ध है।
द्रव्य और गुण का लक्षण भी भिन्न भिन्न बताया गया है । वैशेषिक सूत्रों में कहा है कि 'जो क्रियाश्रय गुणाश्रय और समवायी कारण होता है वह द्रव्य है' । तथा 'जो द्रव्याश्रित होते हैं, निर्गुण होते हैं संयोगविभाग के कारण नहीं होते, निरपेक्ष होते हैं वे गुण हैं ।' – इस प्रकार द्रव्य और गुण के लक्षण-प्रतिपादक सूत्र वचन से यहाँ लक्षणभेद सिद्ध होता है ||८||
* गुण-गुणी में एकान्तभेद का परिहार * गुण-गुणी के सर्वथा भेदवाद का परिहार ९वीं गाथा से करते हैं -
मूल गाथा शब्दार्थ :- अन्यत्व तो दूर रहो, 'गुण' शब्द की ही परीक्षा की जाय - क्या पर्यायातिरिक्त में 'गुण' संज्ञा करते हैं या पर्याय में ही ? ॥९॥
व्याख्यार्थ :- गुण-गुणी के एकान्त भेद की कथा को अभी बाजु पर रहने दो, क्योंकि एकान्तभेद का संभव ही नहीं है । द्रव्य से अभिन्न गुण की उपलब्धिरूप प्रत्यक्ष प्रतीति ही एकान्त गुण-गुणीभेद की बाधक है । समवाय के प्रभाव से गुण और द्रव्य में अभेदप्रतीति होती है ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रथमखंड में विस्तार से समवाय के अस्तित्व का निषेध हो चुका है । ८ वी गाथा में जो असमानग्रहणहेतुक तथा लक्षणभेदहेतुक दो अनुमान दिखाये हैं वे कालात्ययापदिष्ट यानी बाधित होने से, गुण-गुणी के एकत्व की प्रतीति में वे बाधक नहीं बन सकते । दोनों अनुमान इसलिये बाधित है कि उस के कर्म यानी साध्य का निर्देश एकत्व साधक ॐ अत्र ‘पज्जवाहिए' इति वक्तव्ये ‘पज्जवाहिओ' इति वचनमार्षे न दोषाय ।
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