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पञ्चमः खण्डः - का० ८ द्रव्यं गुणादिभ्योऽनन्यत् तेऽपि द्रव्यादनन्य एवेत्येतदनेकान्तममृष्यमाणा आहुः --
रूव-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा ।
तम्हा दव्वाणुगया 'गुण'त्ति ते केइ इच्छंति ॥८॥ रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः असमानग्रहणलक्षणा यस्मात् ततो द्रव्याश्रिता गुणा इति केचन वैशेषिकाद्याः, स्वयूथ्या वा सिद्धान्तानभिज्ञा अभ्युपगच्छन्ति । तथाहि – गुणा द्रव्याद् भिन्नाः, भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वात् भिन्नलक्षणत्वाच्च, स्तम्भात् कुम्भवत् । न चासिद्धौ हेतू, द्रव्यस्य ‘यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामि' इत्यनुसंधानाध्यक्षग्राह्यत्वात् – रूपादीनां च प्रतिनियतेन्द्रियप्रभवप्रत्ययावसेयत्वात् 'दार्शनं स्पार्शनं च द्रव्यम्' इत्याद्याभिधानादसमानग्रहणता द्रव्य-गुणयोः सिद्धाः । तथा, विभिन्नलक्षणत्वमपि - ‘क्रियावद्
की आग लगानेवाला पुरुष उसका कर्ता बना हुआ है । यहाँ भी गुस्सा के कर्ता के रूप से उस पुरुष की विभजना इस प्रकार जानना चाहिये – गुस्सा की आग सभी में नहीं लग सकती । जो कषायाधीन जीव है उसी में वह आग कटुवचनादि से लगायी जा सकती है, कषायविजेता जीव में वह शक्य नहीं है । अत: गुस्सा की आग लगानेवाला पुरुष कोपपरिणतियोग्य कषायाधीन जीव के प्रति कर्ता है, कषायविजेता के प्रति वह कर्ता नहीं है ॥७॥
* द्रव्य और गुण का सर्वथा भेद - वैशेषिकादिमत * द्रव्य और पर्याय के भेदाभेदसम्बन्ध में अनेकान्तप्रदर्शन कर दिया है, उस से यह भी फलित हो जाता है कि 'द्रव्य गुणादि से भिन्न नहीं है और गुणादि भी द्रव्य से भिन्न नहीं है' । ऐसा अनेकान्त है, क्योंकि गुण वस्तुत: पर्याय से अलग चीज नहीं है । फिर भी इस बात पर परामर्श न करनेवाले कुछ लोगों का कहना ऐसा है - ____ मूलगाथा शब्दार्थ :- चूँकि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का ग्रहण और लक्षण असमान है इसीलिये कुछ लोग गुणों को द्रव्यानुगत (द्रव्यभिन्न) मानते हैं ॥॥ ____ व्याख्यार्थ :- यहाँ कुछ लोग से तात्पर्य है वैशेषिक-नैयायिक आदि जैनेतर दार्शनिक, अथवा अपने जुथवाले यानी कुछ दिगम्बर वादी, जिनको वास्तविक सिद्धान्त की जानकारी नहीं है । उनके कहने का तात्पर्य यह है कि गुण द्रव्याश्रित जरूर हैं किन्तु द्रव्यमय या द्रव्यरूप (यानी द्रव्य से अभिन्न) नहीं है अर्थात् द्रव्य से भिन्न हैं । (मूलगाथा में गुण द्रव्य से भिन्न हैं ऐसा अक्षरशः नहीं कहा है, किन्तु 'द्रव्यानुगत शब्द से इसका सूचन किया है ।) द्रव्य से भिन्न होने में दो हेतु हैं - १ उनका ग्राहक प्रमाण द्रव्यग्राहक प्रमाण से अतिरिक्त
२ तथा स्तम्भ और कम्भ में जैसे लक्षणभेद है वैसे गण और द्रव्य के लक्षण भी भिन्न हैं । ग्राहकप्रमाण के भेद से तथा लक्षण के भेद से जरूर वस्तुभेद सिद्ध होता है । ये दोनों हेतु वास्तविक हैं, असिद्ध नहीं हैं । द्रव्यग्राहक प्रमाण - 'जिस को देखा उसी को स्पर्श करता हूँ' यह दर्शन-स्पार्शन के विषय को एक
- मूलगाथा में जो 'ते' पद है उसका श्रीअभयदेवसूरि या उपाध्यायजीने कुछ भी विवरण नहीं किया है । यदि मूलगाथा में 'गुण त्ति ते' के बदले 'गुणभिन्ने' ऐसा कुछ पाठ होता और श्री अभयदेवसूरिजी की व्याख्या में 'गुण इति' के स्थान में ‘गुणा भिन्ना इति' ऐसा पाठ होता तो बहुत अच्छा रहता, क्योंकि उपाध्यायजीने तो ‘गुणाः तद्भिन्ना एवेति' ऐसा ही व्याख्यान अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरण में किया है ।
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