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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् जहा – दविए आया..." *[भगवती• शत. १२ – उ० १०] इत्यादौ ॥६॥ इतश्चानेकान्तात्मकता आत्मनः प्रतिपत्तव्येत्याह -
कोवं उप्यायंतो पुरिसो जीवस्स कारओ होइ ।
तत्तो विभएयव्वो परम्मि सयमेव भइयव्वो ॥७॥ कोपपरिणतिमुपनयन् पुरुषो जीवस्य परभवप्रादुर्भावे निवर्त्तको भवति, तनिमित्तस्य कर्मण उपादानात् । कोपपरिणाममापद्यमानश्च पुरुषस्ततः = परभवजीवाद् विभजनीयो = भिन्नो व्यवस्थापनीयः, कार्य-कारणयोर्मुत्पिण्डघटवत् कथंचिद् भेदात्, अन्यथा कार्य-कारणभावाभावप्रसंगात् । न चासौ ततो भिन्न एव, परस्मिन् भवे स्वयमेव पुरुषो भजनीयः = आत्मरूपतया अभेदेन व्यवस्थाप्यत इति भावः, घटायाकारपरिणतमृद्र्व्यवत् कथंचिद् भिन्न इत्यनेकान्तः ।
यद्वा - कोपपरिणतिमन्यस्मिन् जीवे उत्पादयन् पुरुषः कारको भवति । ततोऽसौ कोपकारकत्वेन विभजनीयः = कोपपरिणतियोग्ये जीवे कारकः, अन्यत्राऽकारक इति ॥७॥ कषायपरिणतात्मा, योगपरिणतात्मा, उपयोगपरिणतात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा ऐसे आठ प्रकार गिनाये गये हैं ॥६॥
* आत्मस्वभाव भी अनेकान्तगर्भित * निम्नोक्त्त तरीके से भी आत्मा की अनेकान्तरूपता स्वीकारना चाहिये -
मूल गाथा शब्दार्थ : - गुस्सा को पैदा करनेवाला पुरुष जीव का कारक है । उस परभव जीव से पुरुष विभजनीय है (तथा) स्वयमेव पुरुष परभव में भजनीय है ॥७|| __अपनी आत्मा में गुस्सा के अध्यवसाय को उत्पन्न करनेवाला जीव ऐसा दुष्कर्म का बन्ध करता है जिस से वह स्वयं अग्रिमभवग्रहणपरिणामविशिष्ट स्व का यानी खुद अपने जीव का उत्पादक बन बैठता है, क्योंकि गुस्सा के जरिये अग्रिमभवप्रापक कर्म का ग्रहण हो जाता है । यहाँ, अग्रिमभव का जीव कार्य है और वर्तमान भव का जीव उस का कारण है, इसलिये कोपाध्यवसाय में परिणत जीव कारणरूप होने से, कार्यरूप अग्रिमभवपरिणामवाले जीव से भिन्न है - यह व्यवस्था उचित व्यवस्था है । जैसे, मिट्टीपिण्ड और घट में कारण-कार्य भाव होने से वे दोनों कथंचिद् भिन्न माने जाते हैं । यदि ऐसा भेद नहीं मानेंगे तो कारण-कार्यभाव सर्वथा अभेद में सम्भव न होने से विलीन हो जायेगा । ___कथंचिद् भिन्न कहने का मतलब यह है कि उन दोनों में कथंचिद् अभेद भी है, सर्वथा भिन्न ही नहीं है । अतः अग्रिमभवशाली जीव के साथ वर्तमान में कोपाध्यवसायपरिणत आत्मा को भजनीय मानना होगा, अर्थात् आत्मभाव से अभिन्न है इस प्रकार की व्यवस्था दिखाना होगा । उदा० घटाकार परिणत मृद्र्व्य और मिट्टीपिण्ड रूप मृद्रव्य में मिट्टी के रूप में कथंचिद् अभिन्नता होती है - इस प्रकार यहाँ भी अनेकान्त स्थापित होता है। ___अथवा इस गाथा की कुछ अन्य रीति से व्याख्या इस प्रकार हो सकती है - जीव में कोपाध्यवसाय * दवियाया कसायाया जोगाया उवओगाया णाणाया दंसणाया चरित्ताया वीरियाया'' - इति सम्पूर्णसूत्रम् (भगवतीसूत्रे सू०४६७) • श्री यशोविजयोपाध्यायेन अनेकान्तव्यवस्थायाम् 'प्रसंगात्' इत्यनन्तरम् – 'वीतरागजन्मादर्शनन्यायेनैकत्वेन सिद्धर कथं भवभेदेन भेद इति चेत् ? मृद्र्व्यतयैकत्वेन सिद्धस्य मृत्पिण्डघटभावाभ्यामपि कथं भेदः ? न हि मृत्पिण्डघटभावाभ्यां मृद इव देव-मनुजभावाभ्यां जीवस्य वैलक्षण्यमप्रामाणिकमिति विभावनीयम्' - इत्यधिकं परिभावितमेतां गाथां विवृण्वता ।
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