________________
पञ्चमः खण्डः का० ६
स्यादेतत्-पुद्गलद्रव्यस्य तादृग्भूतापरपुद्गलद्रव्यापेक्षया अनेकान्तरूपता युक्ता, प्रत्युत्पन्ने त्वात्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपता ? – न, आत्मपर्यायस्यापि ज्ञानादेस्तत्तद्ग्राह्यार्थापेक्षयाऽनेकान्तरूपता पुद्गलवन्न विरुध्यते । तथा द्रव्य कषाय-योगोपयोगज्ञान - दर्शन - चारित्र - वीर्यप्रभेदात्मकत्वादात्मनः पुद्गलवदनेकान्तरूपता आर्षे प्रतिपादितैव " कइविहे णं भंते ! आया पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे । तं
सकती है । ६ अथवा अनंत गुण हानिवाली हो सकती है ।
सहस्र (१००० ) की संख्या को ले कर इस बात को ऐसी कल्पना से समझ सकते हैं (१) १००० = ९९५, यहाँ अत्यन्त कम हानि होने से कल्पना से इस को अनन्तभाग की हानि कह सकते हैं । यानी एक विशाल राशि में से उसका अनन्तवाँ ( बहुत छोटा) हिस्सा कम किया जाता है ।
(२) १००० - १२५ = ८७५, यह पूर्व की हानि से कुछ बढ कर हानि है इसलिये कल्पना से इसको असंख्यातभाग की हानि कह सकते हैं। यानी इस में असंख्यातवां भाग ( पूर्व से बडा हिस्सा ) हीन हो जाता है । (३) १००० २५० = ७५०, यहाँ चौथाई हिस्सा कम हो गया है, कल्पना से इस को संख्यात भाग हानि कह सकते हैं, इस में संख्यातवाँ यानी खासा बडा हिस्सा कम जाता है । (४) संख्यात गुण हानि का मतलब है मूल राशि सिर्फ संख्यातवाँ भाग ही शेष रह जाय, उदा० १००० - ७५० = २५० । यहाँ सिर्फ चौथाई हिस्सा शेष रह जाता है । ( ५ ) असंख्यात गुण हानि में सिर्फ असंख्यातवाँ भाग ही शेष रह जाता है जैसे १००० – ८७५ = १२५ । यहाँ आठ भाग में से सिर्फ आढवाँ भाग बचता है, बाकी सात भाग कम हो जाते हैं । ( ६ ) अनन्तगुण हानि में सिर्फ अनन्तवाँ भाग ही बच जाता है जैसे १००० - - ९९५ =५, यहाँ २०० वाँ भाग ही बचता है ।
१५
-
इस से उलटे क्रम से चले तो १ अनन्तगुणवृद्धि (५ +९९५ = १०००) २ असंख्यगुण वृद्धि (१२५ + ८७५=१०००) ३ संख्यातगुणवृद्धि (२५० + ७५० = १०००) ४ संख्यातभागवृद्धि ( ७५० + २५० = १०००) ५ असंख्यात भागवृद्धि (८७५+१२५=१०००) ६ अनन्तभाग वृद्धि (९९५ + ५ = १००० ) इस प्रकार के छ: स्थान वृद्धि में भी यथासम्भव हो सकते है । इस प्रकार की हानि - वृद्धि को जैन शास्त्रों में 'षट् स्थान हानि - वृद्धि' कहा जाता है ।
एक काले वर्ण वाले द्रव्य की कालिमा दूसरे काले द्रव्य की कालिमा से यथासंभव षट्स्थानहानिवृद्धि में से कोई भी प्रकार से हो सकती है, क्योंकि कृष्णता के न्यूनतम अंश को प्रारम्भिक मानक बनाया जाय तो ऐसे अनन्तानन्त अंश हरेक कृष्णवर्ण के द्रव्य में हो सकते हैं अतः उन में उपरोक्त छ: प्रकार की हानि - वृद्धि भी सम्भवित है ।
निष्कर्ष यह है कि एक कृष्णद्रव्य अपने में जितने अंश वाली कृष्णता को वर्त्तमान में धारण करता है। वह तथाविध कृष्णतापर्याय से अस्तित्व में होता है और तब अन्य सकल विकल्पवाले कृष्णता पर्याय से अस्तित्वशाली नहीं होता । इस प्रकार वर्त्तमान पर्याय में भी भजनागति सावकाश होने से एकान्तवाद की आपत्ति नहीं है ।
प्रश्न :- पुद्गल (परमाणु) द्रव्य में तो सजातीय अन्य पुद्गल द्रव्य की अपेक्षाओं की विवक्षा से अनेकान्तवाद की स्थापना हो सकती है । वर्त्तमान आत्मद्रव्य के पर्यायों में वह कैसे की जायेगी ?
Jain Educationa International
उत्तर :- इस शंका का कुछ भी महत्त्व नहीं है क्योंकि आत्मा के जो वर्त्तमान ज्ञानादिपर्याय हैं वे भी अपने ग्राह्य विषयभेद की अपेक्षा अनेकान्तरूप ही होते हैं, जैसा पुद्गल के लिये कह आये हैं । इस में कोई विरोध नहीं है । तथा आर्ष यानी आगमशास्त्र में भी भगवती सूत्र में “भगवन् ! आत्मा कितने प्रकार के हैं ?" इस प्रश्न के उत्तर में 'हे गौतम! आठ प्रकार के हैं' ऐसा उत्तर दे कर, द्रव्यात्मा (आत्मद्रव्य),
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org