SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् पचप्पण्णम्मि विपज्जयम्मि भयणागडं पडइ दव्वं । जं एगगुणाईया अणंतकप्पा 'गमविसेसा ॥६॥ वर्त्तमानेऽपि परिणामे स्व-पररूपतया सदसदात्मरूपताम्, अधो- मध्योर्ध्वादिरूपेण च भेदाभेदात्मकतां च 'भजनागतिमासादयति द्रव्यम् । यत एकगुणकृष्णत्वादयोऽनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषास्तेषां च मध्ये केनचिद् गुणविशेषेण युक्तं तत् । तथाहि कृष्णं द्रव्यं तद्द्द्रव्यान्तरेण तुल्यम् अधिकं ऊनं वा भवेत् प्रकारान्तराभावात्, प्रथमपक्षे सर्वथा तुल्यत्वे तदेकत्वापत्तिः ', उत्तरपक्षयोः संख्येयादिभागगुणवृद्धिहानिभ्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यंभाविनी । अस्तित्व ही है। - तो यहाँ नियम दिखाने से एकान्तवाद की आपत्ति जरूर होगी । उत्तर :- इस शंका का उत्तर छट्ठी का。 से दिया जाता है। मूलगाथा शब्दार्थ : वर्त्तमानपर्याय के बारे में भी द्रव्य भजनागति को प्राप्त है, क्योंकि एकगुणादि अनन्त प्रकार, विशेषों के होते हैं । I या ऊर्ध्वभाग के साथ अभिन्न रहता है, ऊपर रक्त, व्याख्या :- वर्त्तमान परिणाम में नियम बताने से एकान्तवादप्राप्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि वह नियम भी विकल्पसंमिलित ही है । देखिये वर्त्तमान परिणाम में भी स्वरूप से सद्रूपता और पररूप से असद्रूपता के विकल्प होते हैं, तथा अधोभाग- मध्यभाग और ऊर्ध्वभाग से भी भेदात्मक और अभेदात्मक विकल्प होते हैं । विवक्षित नीलादि वर्त्तमान पर्याय कभी द्रव्य के मध्यभाग के साथ अभिन्न होता है तो कभी अधोभाग मध्य में श्वेत और अधोभाग में नील ऐसी ध्वजा इस का उदाहरण है । स्व-पर रूप से भी सद्रूपता - असद्रूपता इसलिये हैं कि पूरे वस्त्र में जब एक ही कृष्णादि वर्ण होता है तब भी कृष्णादि में एक गुण काला, द्विगुण काला... अनन्तगुण काला ऐसे जो अनन्तप्रकार कृष्णवर्ण के हैं उनमें से किसी एक प्रकार से ही वह सत् होता है और तदन्य सभी प्रकारों से वह असत् होता है । इस प्रकार सोचिये कि जो एक कृष्णरूपवाला द्रव्य है उस में अन्य कृष्णद्रव्य की तुलना में तीन विकल्प से कृष्णता हो सकती है १ समान कृष्णता, २ अधिकगुण कृष्णता, ३ न्यून कृष्णता । इन में से किसी एक विकल्प का ही सम्भव हो सकता है, अन्य विकल्प सम्भव नहीं है । प्रथम विकल्प में भी सर्वथा तुल्यता नहीं किन्तु कथंचित् तुल्यता ही मानना होगा, क्योंकि सर्वथा तुल्यता मानेंगे तो सर्वथा एकत्व = अभेद मानने की भी आपत्ति हो सकती है । अत: वहाँ भी भजनागति सावकाश है । तथा न्यूनाधिकपक्षों में तो छः स्थानों की सम्भावना से यानी छ: छ: प्रकार की हानि - वृद्धि यथासम्भव मानना होगा । Jain Educationa International - * षट् स्थान हानि - वृद्धि का विवरण छछ प्रकार हानि-वृद्धि यह जैन शास्त्रमें विशेषतः 'षट्स्थान हानिवृद्धि प्रक्रिया' रूप से प्रसिद्ध है एक व्यक्ति में दूसरी व्यक्ति की अपेक्षा जो न्यूनाधिकता होती है वह सम्भवत: छ: प्रकार से वर्गीकृत की जा सकती है । इसको इस प्रकार समझेंगें - १ एक वस्तु दूसरी वस्तु से गुण अवगुण में सम्भवतः अनन्तभाग हानिवाली हो सकती है । २ अथवा असंख्य भाग हानिवाली हो सकती है । ३ अथवा संख्यात भाग हानिवाली हो सकती है । ४ अथवा संख्यात गुण हानिवाली हो सकती है । ५ अथवा असंख्यात गुण हानिवाली हो १. ' गुणविसेसा' इति पाठान्तरम्, २. भजनागतिं ३. 'तदेकत्वापत्तिः, तथा च नील-नीलतरादिप्रतीतिबाधः, उत्तरपक्षयोः' इति व्याख्यातं श्रीयशोविजयोपाध्यायेन अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणे । विकल्पपद्धतिम् इति, तथा = For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy