________________
पञ्चमः खण्डः
नात्; विशेषाणां त्वानन्त्यात् संकेताऽसम्भवतः शब्दाऽवाच्यत्वम् । परस्परव्यावृत्तसामान्य-विशेषयोरप्यवाच्यत्वम् उभयदोषप्रसंगात् । तत उभयात्मकं वस्तु गुण - प्रधानभावेन शब्देनाभिधीयत इति सदृशैर्व्यञ्जनतोऽस्तीत्युपपन्नम् । न पुनः नैव अर्थपर्यायैः अन्योन्यव्यावृत्तवस्तुस्वलक्षणग्राहकत्वात् तस्य ।
=
ऋजुसूत्राभिमतार्थपर्यायैः तद् अस्ति,
अयं चार्थः पूर्वसूत्र एव प्रदर्शितः इत्यन्यथा गाथासूत्रं व्याख्येयम् अन्यवस्तुगताः पर्याया विसदृश-सदृशतया द्विप्रकाराः, तत्र विसदृशैर्विवक्षितो घटादिर्नैवास्ति सदृशैस्तु कैश्चिदुक्तवदस्ति कैश्चिन्नेति तात्पर्यार्थः ॥५॥
ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायेण भावस्याsस्तित्वनियमे एकान्तवादापत्तिः इत्याशंक्याह
के बाद प्रथम सामान्य का बोध और बाद में विशेष का बोध ऐसा क्रमिक संवेदन अनुभवारूढ नहीं होता । दूसरी बात यह है कि विशेष तो व्यक्तिरूप से अनन्त है, इसलिये उनमें संकेत का सम्भव न होने से वह शब्दवाच्य हो नहीं सकता । एक- दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र ऐसे सामान्य - विशेष का युगल मिल कर भी शब्दवाच्य नहीं हो सकता क्योंकि स्वतन्त्र सामान्य विशेष के एक-एक पक्ष में जो विपदाएँ हैं वे सब इस पक्ष में भी आ कर खडी रह जायेगी ।
-
का० ५
=
Jain Educationa International
—
—
उपरोक्त रीति से स्वतन्त्र सामान्य विशेष शब्दवाच्य नहीं हो सकते इसलिये यही मानना उचित है अन्योन्य मिलित सामान्य-विशेषोभयात्मक वस्तु ही कभी 'सामान्य गौण और विशेष मुख्य' हो कर तथा कभी 'विशेष गौण और सामान्य मुख्य' हो कर शब्दवाच्य होती है । इस स्थिति को ध्यान में रख कर ग्रन्थकार ने कहा है कि व्यञ्जनसापेक्ष सदृश पर्यायों से घटादि पदार्थ का अस्तित्व होता है ।
१३
सदृश व्यंजन पर्याय नहीं किन्तु सदृश जो तद्रूप, तद्रस आदि अर्थपर्याय हैं उन पर्यायों से प्रस्तुत घट आदि पदार्थों का अस्तित्व नहीं हो सकता । कारण यह है कि तद् तद् व्यक्ति के जो व्यक्तिगत रूप - रसादि भूत- भावि पर्याय हैं वे वर्त्तमान के रूप- रसादि पर्यायों से सदृश होने पर भी ऋजुसूत्र के मत से असत् हैं । ऋजुसूत्र के मत से, अतीत - अनागत और परकीय वस्तु वस्तु ही नहीं होती । वह तो सर्वथा एक-दूसरे से विलक्षण स्वलक्षणमात्रवस्तु का ग्राहक होने से, वास्तव में उस के मत में सादृश्य जैसी चीज ही नहीं है, अतः सदृश पर्यायों से वस्तु का अस्तित्व वह कैसे स्वीकार करेगा ? ध्यान में रहे कि शब्द - समभिरूढादि शब्दनय हैं, ऋजुसूत्र शब्दनय नहीं है इसलिये व्यञ्जनपर्याय की चर्चा में ऋजुसूत्र को विचारणा में नहीं लिया है, जब कि ऋजुसूत्र अर्थनय होने से अर्थपर्याय की विचारणा में उस को स्थान मिला है ।
For Personal and Private Use Only
व्याख्याकार कहते हैं कि भूत- भाविकालीन परपर्यायों को लेकर जो बात यहाँ हुई वह तो करिब करिब पूर्वगाथाओं में भी हो चुकी है, इस लिये यहाँ ' पर पर्याय' शब्द से भूत - भाविकालीन पर्यायों को छोड कर सिर्फ अन्यवस्तुगत पर्यायों को लेकर इस गाथा की अर्थव्याख्या करना उचित है जैसे अन्यवस्तुगत पर्याय दो प्रकार के हैं विसदृश और सदृश । उन में से विसदृशपर्यायों की अपेक्षा को विवक्षित करके कहा जायेगा कि घट आदि पदार्थ का अस्तित्व नहीं है । सदृश पर्याय की अपेक्षा की विवक्षा की जाय तो कहना होगा कि कुछ सदृश (व्यञ्जन) पर्यायों की अपेक्षा घट आदि पदार्थ का अस्तित्व जरूर है, किन्तु कुछ सदृश (अर्थपर्यायरूप) पर्यायों की अपेक्षा से वह नहीं है। यह पाँचवी गाथा का तात्पयार्थ है ||५||
—
* वर्त्तमानपर्याय में भी भजना
शंका :- चौथी गाथा में जो कहा गया है कि वर्त्तमान काल में वर्त्तमान पर्याय से भाव का नियमतः
www.jainelibrary.org