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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् परपज्जवेहिं असरिसगमेहिं णियमेण णिच्चमवि नत्थि
सरिसेहिं पि वंजणओ अत्थि ण पुणऽत्थपज्जाए ॥५॥ वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूतभविष्यत्पर्यायाः परपर्यायास्तैर्विसदृशगमैर्विजातीयज्ञानग्राद्यैः नियमेन = निश्चयेन नित्यं = सर्वदा नास्ति तद् द्रव्यम्, तैरपि तदा तस्य सद्भावे अवस्थासंकीर्णताप्रसक्तेः। सदृशैस्तु व्यञ्जनतः सामान्यधर्मैः सत्-द्रव्य-पृथिवीत्वादिभिः विशेषात्मकैश्च शब्दप्रतिपाद्यैरस्ति, सामान्यविशेषात्मकस्य शब्दवाच्यत्वात् । सामान्यमात्रस्य तद्वाच्यत्वे शब्दादप्रवृत्तिप्रसक्तेरर्थक्रियासमर्थस्य तेनानुक्तत्वात् सामान्यमात्रस्य च तदुक्तस्यार्थक्रियाऽनिवर्त्तकत्वात्, विशेषमन्तरेण सामान्यस्याऽसम्भवात् सामान्यप्रतिपादनद्वारेण लक्षणया विशेषप्रतिपादनमपि शब्दान्न सम्भवति, क्रमप्रतिपत्तेरसंवेद
* विसदृश-सदृश पर्यायों से अस्ति-नास्ति विमर्श * प्रश्न :- घट-वस्त्र इत्यादि पदार्थ का भूत-भविष्य काल में भी आपने कथंचिद् सत्य होने का निर्देश किया, इस से यह जिज्ञासा ऊठती है कि व्यापकरूप से, किन पर्यायों से घट-वस्त्रादि पदार्थ का अस्तित्व होता है और किन पर्यायों से नहीं होता है ?
उत्तर :- इस प्रश्न का उत्तर पंचमी कारिका में दिया जा रहा है -
मूलगाथाशब्दार्थ :- हमेशा के लिये, विसदृशगमात्मक परपर्यायों से निश्चयतः द्रव्य का नास्तित्व ही होता है । सदृश परपर्यायों में भी व्यञ्जनतः अस्तित्व होता है, अर्थपर्यायों से नहीं होता ।।५।। ___व्याख्या :- परपर्याय के दो प्रकार हो सकते हैं - विसदृशगम और सदृश । वर्तमान पर्यायों से भिन्न जो भूत-भावि पर्याय हैं उन को यहाँ परपर्याय समझना है । विसदृशगम यानी विजातीयस्वरूप से ज्ञानग्राह्य ऐसे परपर्याय-उदा० पूर्वोत्तरकालीन पिण्ड-कपालखण्डसमूह जो कि घटज्ञान से नहीं किन्तु विजातीयज्ञान से जाने जाते हैं । विजातीय स्वरूप वाले परपर्यायों की अपेक्षा से घटादि द्रव्य का अस्तित्व कभी भी नहीं होता यह पक्की बात है । यदि विसदृश परपर्यायों से भी घटद्रव्य का वर्तमानकाल में अस्तित्व माना जाय तो पिण्डावस्था -- घटावस्था और खण्डीभूतकपालसमूहावस्था, इन का सांकर्य प्रसक्त होगा ।
* व्यंजनपर्याय-अर्थपर्याय से अस्ति-नास्ति विमर्श * सदृश-पर्यायों के दो भेद किये जा सकते हैं, व्यञ्जन यानी शब्द से प्रतिपाद्य पर्याय और अर्थपर्याय (जो कि शब्दप्रतिपाद्य नहीं होते) । शब्दप्रतिपाद्य सदृश पर्याय भी सामान्य-विशेषोभयात्मक हैं, जैसे सत्-द्रव्य-पृथ्वी आदि सामान्यात्मक हैं और घट-कुम्भादि विशेषात्मक हैं, परस्परमिलित इन दोनों से अभिन्न ऐसी शब्दवाच्य वस्तु, सदृशव्यञ्जनपर्याय की अपेक्षा से अस्तित्वशाली होती है ।
यहाँ सामान्यविशेषात्मक वस्तु का निर्देश इसलिये किया गया है कि वही शब्दवाच्य होती है । सामान्यमात्र को शब्दवाच्य मानेंगे तो शब्द से होने वाली प्रवृत्ति स्थगित हो जायेगी क्योंकि तब शब्द से किसी अर्थक्रियासमर्थ रूप का निर्देश नहीं मिलता । जिस सामान्यरूप का निर्देश मिलता है वह अर्थक्रिया का निवर्तक यानी साधक नहीं होता; जैसे कि गोत्व-घटत्व सामान्य से दोहन-जलानयन आदि कोई अर्थक्रिया कहीं नहीं होती । यदि कल्पना करें कि – 'सामान्य विशेष से मिला-जुला ही रहता है अत: सामान्यनिर्देश होने पर लक्षणावृत्ति से विशेष का निर्देश प्राप्त होने से अर्थक्रियाप्रवृत्ति हो सकेगी' -- तो यह कल्पना व्यर्थ है क्योंकि शब्द सुनने
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