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________________ ४०८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तस्य । अनेन विशिष्टपुरुषप्रणीतत्वनिबन्धनं प्रामाण्यं निगमयति । क्षीराश्रवाद्यनेकलब्ध्याद्यैश्वर्यादिमतो भगवत इत्यनेनापि विशेषणेन तस्यैहिकसम्पद्विशेषजनकत्वमाह । संविग्नैः संसारभयोद्वेगाविर्भूत-मोक्षाभिलाषैरपकृष्यमाणराग-द्वेषाऽहंकारकालुष्यैः ‘इदमेव जिनवचनं तत्त्वम्' इत्येवं सुखेनावगम्येत यत् तत् संविग्नसुखाभिगम्यम् । एतेनापि विशिष्टबुद्ध्यतिशयसंवित्समन्वितयतिवृषनिषेव्यत्वमस्य प्रतिपादयति । एवंविधगुणाध्यासितस्य जिनवचनस्य सामायिकादिबिन्दुसारपर्यन्तश्रुताम्भोधेः कल्याणमस्तु इति प्रकरणसमाप्तावन्त्यमङ्गलसम्पादनार्थं विशिष्टां स्तुतिमाह। ॥ इति तत्त्वबोधविधायिन्यां सन्मतिटीकायां तृतीयं काण्डं समाप्तम् ।। * व्याख्याकार-अभयदेवसूरि कृता प्रशस्तिः * इति कतिपयसूत्रव्याख्यया यद् मयाऽऽप्तम् कुशलमतुलमस्मात् सन्मते व्यसाथैः । भवभयमभिभूय प्राप्यतां ज्ञानगर्भम् विमलमभयदेवस्थानमानन्दसारम् ।।१॥ सुधातुल्य है। जिनवचन यानी जिनों का प्ररूपित वचन। जिन यानी विजेता, जो रागादि सकल अन्तःशत्रुओं के विजेता हैं ऐसे पुरुषविशेष 'जिन' कहे जाते हैं। इस से यह ध्वनित करना है कि वचनगत प्रामाण्य हरहमेश विशिष्टपुरुषरचनामूलक ही होता है। मूलसूत्र में जिनवचन को भी ‘भगवत्' विशेषण से अलंकृत किया है जिस से यह सूचित किया जाता है कि जिनवचन के प्रतिपादक जिनों में क्षीराश्रवादिलब्धि एवं कैवल्यज्ञानादि ऐश्वर्य बेजोड होता है। इस से यह भी संकेत मिलता है कि ऐसा जिनवचन इहलौकिक विशिष्ट सम्पदाओं का प्रणेता है। 'संविग्नसुखाधिगम्य' यह भी मूल सूत्र में जिनवचन का विशेषण है - अर्थ यह है - संविग्न = जिन को संसार के भय से उद्वेग है ओर संसारभयजनित उद्वेग से जिन को मुक्ति की इच्छा का आविर्भाव हुआ है, तथा जिन के राग-द्वेष और अहंकार का मालिन्य क्षीण होते चला है ऐसे जीवों को 'संविग्न' कहा जाता है। 'यह जिनवचन ही परम तत्त्व है' ऐसा अधिगम सुखपूर्वक उन को ही होता हो – अतः जिनवचन संविग्नजन को सुखाधिगम्य कहा गया है। इस से सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि विशिष्ट बुद्धि-अतिशय एवं विशिष्ट संवेदन से समन्वित यतिवृषभों के लिये यही एक जिनवचन उपासनाह है। ____ संक्षेप में, मूलसूत्रकारने अपने सम्मति-तर्क प्रकरण ग्रन्थ की सहर्षसमाप्ति के अवसर पर अंतिम मंगलसम्पत्ति के लिये विशिष्ट प्रकार से जिनवचन की स्तुति करते हुए इस अंतिम गाथा मे यही कहा है कि मिथ्यादर्शनसमूहमय-अमृतसार इत्यादि असाधारण गुणगण से अलंकृत सामायिक से लेकर बिन्दुसार (१४ वाँ पूर्व) पर्यन्त सुविस्तृत श्रुतजलधि का कल्याण हो। अर्थात् जिनवचन का योग्यजनों में अधिक अधिक प्रसार हो । _ 'सन्मति' तर्कप्रकरण की 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या में तीसरा काण्ड समाप्त हुआ। सूत्र में निहित गूढतत्त्वों का अवबोध करा कर व्याख्याने अपना नाम सार्थक किया है। ____* व्याख्याकार अन्तिम प्रशस्ति * व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरि व्याख्या के उपसंहार में मंगलकामना प्रगट करते हैं - कुछ कुछ अंश में सन्मतिप्रकरण के सूत्रों का व्याख्यान करने से मुझे जो कुछ असाधारण कुशल कर्म का (पुण्य का) लाभ हुआ, उस से भव्य जीवसमुदायों के भवभय का पराभव हो और वे निर्मल ज्ञान से छलकते आनन्द के सारभूत निर्भयता के देवस्थान को (अर्थात् मोक्ष को) प्राप्त करें ।।१।। अब व्याख्याकार अपने उपकारी गुरुदेव प्रद्युम्नसूरिजी महाराज की स्तुति प्रस्तुत करते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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