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पञ्चमः खण्डः का० ६९
“असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यद्धि न युक्तमिति नेष्यते ।। ( ) इत्यादिवादन्यायलक्षणमेकान्तवादिनां सर्वमसंगतम्, उक्तन्यायात् सर्वस्य चैकान्तसाधनाङ्गत्वात्तस्यासत्त्वेन साधयितुमशक्यत्वात् अनेकान्तस्य च निर्दोषत्वेन तत्र दोषोद्भावनस्याऽदोषोद्भावनरूपत्वाद् दोषानुद्भावनस्य च निर्दोषे पराजयानधिकरणत्वात्तदुद्भावनस्यैव तत्र निग्रहार्हत्वात् इत्यलं पिष्टपेषणेन इति व्यवस्थितम् – मिथ्यादर्शनसमूहमयत्वम् 'मयिकत्वं वा ।
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न विद्यते मृतं मरणं यस्मिन् असौ अमृतः गमयति मोक्षः, तं सारयति प्रापयतीति वा तस्य अवन्ध्यमोक्षकारणत्वात् मोक्षप्रतिपादकत्वाच्च । 'अमयसायस्स' वा इति पाठे अमृतवत् स्वाद्यते इत्यमृतस्वादम् = अमृततुल्यमिति यावत् । तथा रागाद्यशेषशत्रुजेतृपुरुषविशेषैरुच्यते इति 'जिनवचनम्’ * वादन्यायग्रन्थोक्त निग्रहस्थानलक्षण असंगत
स्वपक्षसिद्धि न करने वाले दोनों ही पक्ष निग्रह - योग्य है यह नग्न सत्य है, इसी लिये एकान्तवादीयोंने वादन्याय ग्रन्थ में जो यह लक्षण प्रदर्शित किया है ‘(१) स्वयं असाधनभूत अंग का निर्देश करना, तथा (२) अन्य पक्ष में दोष का उद्भावन न करना ये दो ही दोनों वादी - प्रतिवादी के लिये निग्रहस्थान है, अन्य निग्रहस्थान जो अधिकादि दिखाये गये हैं वे अयुक्त है' यह भी असंगत ही है, क्योंकि स्वपक्षसिद्धि न कर सकना यही उक्त न्याय से निग्रहस्थान है । तथा, एकान्तवादीयोंने जितने भी हेतुप्रयोग दिखाये हें वे सब ‘एकान्त’ के ही साधनाङ्ग है, एकान्त तो असत् है, वह साधनाह नहीं है । 'अनेकान्त' निर्दोष तथ्य है, उस में दोषों का उद्भावन भी अनेकान्तवाद के प्रभाव से कथंचित् इष्टापत्तिस्वरूप होने से निर्दोषता के उद्भावनरूप ही हो जाता है। तथा यह ध्यान में होना चाहिये कि निर्दोष में दोष का अनुद्भावन पराजय का अधिकरण नहीं है किन्तु निर्दोष में दोष का उद्भावन करना यही निग्रहस्थान है ।
उपरोक्त सब बात बार बार कही जा चुकी है पुनः पुनः पिष्टपेषण की क्या जरुर ? सूत्रकार ने जो जिनवचन को मिथ्यादर्शन के समूहरूप बताया है वह पूर्व में कहे हुए अनेक प्रकार से बिलकुल ठीक है, क्योंकि अनेकान्तदर्शन नैगमादिनयों के परस्परसापेक्ष विशिष्ट संकलनात्मक है, जिस के एक-एक किन्तु परस्पर निरपेक्ष नैगमादि नयांश मिथ्यादर्शनात्मक है, अतः अनेकान्त दर्शन को मिथ्यादर्शनसमूहात्मक कहने में उस के गौरव की हानि नहीं अपि तु वृद्धि है । (यहाँ ऐसा नहीं समझना है कि नैयायिकादि एक एक मिथ्यादर्शन के अंशो को चुन चुन कर एकत्रित करके जैन दर्शन को समुदायात्मक रूप दिया गया है । वास्तविकता उलटी है, जैन दर्शन सम्पूर्ण सांगोपांग दर्शन है, नैगमादि नय उस के एक एक अंग है, उन एक एक अंगो को पकड़ कर नैयायिकादि स्वतन्त्र दर्शन खडे हुए हैं, इसी तथ्य का निर्देश करने के लिये सूत्रकारने ‘मिथ्यादर्शनसमूहमय' ऐसा विशेषण कहा है। मिथ्यादर्शनों का समूह जैनदर्शन का विकृतरूप है इसी तथ्य का निर्देश 'मयटू' प्रत्यय से किया है ।)
* अमृततुल्य जिनवचन का कल्याण हो अन्त्यमंगल *
सूत्र में जिनवचन का ‘अमृतसार' ऐसा विशेषण है। मृत यानी मौत । जहाँ मौत का प्रसर ही नहीं है उसे अर्थात् मोक्ष को अमृत कहते है । जिनवचन ऐसे अमृत को सारनेवाला झरनेवाला - प्राप्त करानेवाला है क्योंकि जिनवचन मोक्ष का अवन्ध्य उपाय है ओर वही एक तात्त्विक मोक्ष का निदर्शक है। अथवा मूल सूत्र में 'अमयसायस्स' ऐसा कहीं पाठ तो उस का अर्थ यह होगा अमृत तुल्य स्वादवाला अर्थात् स्वयं जिनवचन
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