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________________ __ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नस्तु सद्भूतदोषोद्भावनाज्जयः। न, यदि स्वपक्षसिद्धिमकुर्वता प्रतिवादिना स्व-परोत्कर्षापकर्षप्रत्यायनमात्रेण वादी निगृह्यते इत्यभ्युपगमस्तर्हि असद्भूतदोषोद्भावनेनापि निरुत्तरीकरणादात्मोत्कर्षसम्भवात् प्रतिवादिनो विजयप्राप्तेः वादिनो निर्दोषसाधनाभिधायिनोऽपि पराजयप्रसक्तिः। अथ समर्थस्यापि साधनस्याऽसमर्थनेन स्वपक्षसिद्धेरभावात् वादिनो(?नः)पराजयो न्यायप्राप्त एव । न, उभयत्र पराजयप्रसक्तेः । न ह्यभूतदोषपक्षोपनयनिगमनायुद्भावनमात्रेण प्रतिवादिना प्रकृतं वस्तुतत्त्वं प्रसाधयन् स्वपक्षसाधनसामर्थ्यविकलेन वादी निगृह्यते इति न्यायोपपन्नम् । अथ प्रतिवाद्यप्यसाधनाङ्गस्य साधनाङ्गत्वेनोपादानात् स्वपक्षसिद्धिमकुर्वन् मिथ्याभिनिवेशी निगृह्यत इति चेत् ? न, उभयोर्निग्रहप्राप्तेरित्युक्तत्वात् । तस्माद् - यह खास ध्यान देने योग्य है। कि जब विजय की कामना हो तब अपने पक्ष की स्थापना और अन्य पक्ष का निरसन सभा के मध्य प्रतीतिकारक ढंग से किया जाना चाहिये, अन्यथा किसी का जय-पराजय निश्चित नहीं हो सकेगा। कहने की जरुर नहीं है कि यहाँ परवादी के हेतु में सिर्फ असिद्धि या अनैकान्तिक दोष के उद्भावन से न तो वादी का जय होगा न प्रतिवादी का पराजय, क्योंकि स्वपक्षसिद्धि के विना प्रस्तुतप्रयोजन (सत्यार्थनिर्णय) की निष्पत्ति नहीं हो सकती। * हेत्वाभासमात्र से निग्रहस्थान नहीं हो जाता ** यदि – 'हेतु हेत्वाभास बन जाने से स्वपक्षसिद्धि नहीं होती अत एव वादी को असाधनभूत हेत्वाभास स्वरूप अंग के कथन से निग्रहस्थान प्राप्त होना चाहिये ।' – तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ प्रतिवादी की स्वपक्षसिद्धि भी न होने से उस को भी निग्रहस्थान की प्राप्ति का प्रसंग होगा। यदि कहा जाय – वादी जब हेतुप्रयोग करे तब प्रतिवादी की ओर से उस के हेतु में हेत्वाभास के रूप मे असाधनत्व का प्रदर्शन करने से वादी का पराजय एवं वादी के हेतु में सच्चे दोष के उद्भावन से प्रतिवादी का जय हो सकता है। – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जब प्रतिवादी स्वपक्षसिद्धि नहीं कर सकता और केवल अपनी (पर पक्ष में दोषोद्भावन के द्वारा) हुशीयारी और अन्यपक्ष का अपकर्ष ही प्रदर्शित करता है – इतने मात्र से आप वादी को निगृहीत मान लेते है - यह ठीक नहीं है। कारण, वादी के पक्ष में असद्भूत (जूठे-बनावटी) दोष का उद्भावन कर के वादी को निरुत्तर कर देने पर प्रतिवादी का उत्कर्ष-प्रदर्शन हो जायेगा और उस को विजय प्राप्त होगा तो निर्दोष साधन बोलने वाले वादी को जूठे पराजय की प्राप्ति प्रसक्त होगी - क्या यह न्याय है ? ___'हाँ, न्याय है, क्योंकि निर्दोष समर्थ हेतु का भी समर्थन न कर सकने से, स्वपक्षसिद्धि रुक जाने के कारण वादी का पराजय होना चाहिये' – यह विधान न्याययुक्त नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी भी अपने साधन के समर्थन की उपेक्षा कर के स्वपक्षसिद्धि न कर सकने से उस का भी पराजय होना चाहिये । अर्थात् तब वादी-प्रतिवादी उभय का पराजय मानना चाहिये – अकेले वादी का पराजय मानना अन्याय है। प्रतिवादी के द्वारा वादी के निर्दोष पक्ष में उपनय-निगमन के उद्भावन करने मात्र से वादी प्रस्तुत वस्तुतत्त्व का साधन न कर सके तब भी प्रतिवादी यदि स्वपक्षसाधन के सामर्थ्य से शून्य हो तो वादी को निगृहीत मानना न्याययुक्त नहीं है। __यदि कहा जाय - जैसे वादी असाधन अंग को साधन मान कर प्रस्तुत करे तो निगृहीत होगा वैसे प्रतिवादी भी असाधन अंग को साधन मान कर प्रयुक्त करे और स्वपक्षसिद्धि न कर सके तो वह भी मिथ्याभिनिवेशी होने से निगृहीत होगा - यहाँ अन्याय की बात कहाँ है ? – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि हमने पहले ही बताया है कि जब दोनों ही पक्ष अपने साध्य की सिद्धि न करे तब प्रत्येक स्थिति में दोनों ही निगृहीत हो यही न्याययुक्त है, सिर्फ एक को ही निगृहीत मानना अन्याय है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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