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________________ ४०५ पञ्चमः खण्डः का० ६९ प्रामाण्यप्रसक्तेः तद्गृहीतग्राहितया इत्युक्तं प्राक् । अदृश्यानामनुपलम्भादभावाऽसिद्धावर्थक्रियया सत्ता भावानां व्याप्तेत्येतदपि परस्य निग्रहस्थानमेव । ततः स्वपक्षसिद्धिरितरस्य पराजयाधिकरणम् सा च परोपन्यस्तहेतोर्विरुद्धताप्रदर्शनेन स्वतन्त्रनिर्दोषहेतुसमर्थनेन वा परोपन्यस्तहेत्वसिद्धतादिदोषप्रतिपादनपुरस्सरा कर्त्तव्या अन्यथा परपराजयनिबन्धनस्वविजयाऽयोगात् । यदा च विजिगीषुणा स्वपक्षस्थापनेन परपक्षनिराकरणेन च सभाप्रत्यायनं विधेयम् – अन्यथा जयपराजयानुपपत्तेः, तदाऽसिद्धानैकान्तिकत्वसाधनदोषोद्भावनेऽपि न वादि-प्रतिवादिनोर्जय-पराजयौ, प्रकृतार्थाऽपरिसमाप्तेः । अथ स्वपक्षसिद्धेरभावात् हेत्वाभासादसाधनाङ्गवचनं वादिनो निग्रहस्थानम् । न, इतरत्रापि तत्प्रसंगात्। अथ वादिनः साधनत्वेनाऽभिमतस्यासाधनत्वप्रदर्शनेन प्रतिवादिकृतेन पराजयः प्रतिवादि तथा, धूम और अग्नि के कार्य-कारणभाव की सिद्धि कारक के रूप में माने गये जो प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ (अन्वय और व्यतिरेक) कहे जाते हैं उन में प्रत्यक्ष तो निकटस्थितविषय के बल से ही उत्पन्न होता है अतः विप्रकृष्ट धूम-अग्नि की बात करने में सक्षम नहीं है; अनुपलम्भ तो अनुपलब्धिरूप है किन्तु उस में गर्भितरूप से ऐसा विचार समाविष्ट नहीं होता कि 'इस के न होने पर न रहनेवाला यह उस का कार्य है' । अत एव वह न तो कार्य-कारणभाव का ग्रहण कर सकता है, न व्याप्ति आदि के ग्रहण का व्यापार कर सकता I यदि प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ के बाद होने वाले विकल्प को उक्त व्यापार के लिये सक्षम माना जाय, उसी से व्याप्ति आदि का ग्रहण स्वीकार किया जाय तो उस सविकल्प को बलात् प्रमाण मानने का संकट बौद्ध को होगा, क्योंकि एक तो वह प्रत्यक्षादि से अगृहीत व्याप्ति आदि का ग्राहक है ओर दूसरा, विसंवादी नहीं है । तथा निर्णयात्मक सविकल्प की ही यह महिमा है कि हिंसाध्यवसायी चित्त में दुर्गति की हेतुता का और हिंसाविरमण अथवा दानादि अध्यवसायी चित्त में स्वर्गादिफलसम्पादनसमर्थस्वभाव का अविकल्प में संवेदन होता है फिर भी निर्णय नहीं होता, फिर भी सविकल्पात्मक निर्णय के बल से ही उस के प्रामाण्य का समर्थन होता है, इसलिये भी विकल्प का प्रामाण्य मानना चाहिये । अन्यथा, निर्विकल्पगृहीतग्राहक होने से यदि विकल्प को अप्रमाण मानेंगे तो अनुमान भी प्रत्यक्ष या विकल्प से गृहीत विषय का ग्राही होने से अप्रमाण मानने का संकट खडा होगा - यह पहले भी कह आये हैं। ऐसी स्थिति में अदृश्य के अनुपलम्भ से अभाव की सिद्धि न होने का मानने वाले बौद्ध को 'पदार्थों की सत्ता अर्थक्रिया से व्याप्त होती है' ऐसा कहने पर निग्रहस्थान ही प्राप्त होगा, क्योंकि सत् होने पर भी बहुत सारे पदार्थ और उन की अर्थक्रिया अदृश्य होते है, उन के अदृश्य होने से उन के अनुपलम्भ से सत्ता का व्यतिरेक सिद्ध न होने पर व्याप्ति ही सिद्ध नहीं होगी । * वाद में जय-पराजय का आधार है स्वपक्षसिद्धि * तात्पर्य यह है कि अपने पक्ष की सिद्धि ही वास्तविकरूप से दूसरे के पराजय का अधिकरण हो सकती है। वह तभी हो सकती है जब अन्य द्वारा प्रदर्शित हेतु में विरुद्धता दोष का उद्भावन किया जाय । असिद्धि या अनैकान्तिक दोष के उद्भावन में परपक्षसिद्धि का प्रतिबन्ध होगा किन्तु स्वपक्षसिद्धि नहीं होगी, जब कि विरुद्धता दिखाने पर तो हेतु प्रतिपक्षी के साध्य का व्याप्त सिद्ध होने से प्रतिपक्षी के साध्य की सिद्धि अनायास हो जाती है । अथवा, स्वतन्त्र ढंग से बादी की ओर से अपने अनुमानप्रयोग के हेतु का समर्थन किया जाय और उस के साथ साथ प्रतिवादी के हेतु में असिद्धि या अनैकान्तिक दोष का प्रदर्शन किया जाय तभी प्रतिवादी निग्रहस्थान को प्राप्त होगा । ऐसा न करने पर, सिर्फ असिद्धि या अनैकान्तिक दोष का उद्भावन कर देने मात्र से प्रतिवादीपराजयमूलक स्वविजय की आशा नहीं की जा सकती । अत एव Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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