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________________ ३९५ पञ्चमः खण्डः - का० ६९ स्याभावादवक्तव्यं चेति तथाविवक्षायाम् ‘स्यादेकमवक्तव्यं च' इति पञ्चमभङ्गविषयस्तत् । यदेवैकमाकाशं प्रसिद्धं भवतः तदवगाह्यावगाहकावगाहनक्रियाभेदादनेकम् एकानेकत्वप्रतिपादकशब्दाभावादवक्तव्यं चातः ‘स्यादनेकमवक्तव्यं च' इति षष्ठभंगविषयः। यदेवैकमाकाशात्मतयाऽऽकाशं भवतः प्रसिद्धं तदेव तथैकम् अवगाह्यावगाहकावगाहनक्रियापेक्षयाऽनेकं च युगपत्प्रतिपादनापेक्षयाऽवक्तव्यं चेति 'स्यादेकमनेकमवक्तव्यं च' इति सप्तमभंगविषयः।। ____एवं 'स्यात् सर्वगतः' 'स्याद् असर्वगतो घटादिः' इत्यादिकाऽपि सप्तभंगी वक्तव्या। यतो य एव पार्थिवा परमाणवो घटः त एव विस्रसादिपरिणामवशात् जलानिलानलावन्यादिरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः 'स्यात् सर्वगतो घटः' इत्यादिसप्तभंगविषयतां यथोक्तन्यायात् कथं नासादयन्ति ?! न च घटचाह हो तब आकाश का उदाहरण ले कर चतुर्थभंग कहा जा सकता है कि 'अवकाशदान' एक मात्र आकाश का असाधारण धर्म है उस दृष्टि से आकाश द्रव्य एक है, किन्तु उस में अवगाहन करनेवाले घटादिद्रव्य समस्त आकाश में व्याप्यवृत्ति न हो कर किसी एक देश में ही अवगाहन करते हैं, इस प्रकार अवगाह्य आकाशक्षेत्र के पूर्व-पश्चिमादि अनेक भेद हो जाते हैं, तथा उन क्षेत्रों में अवगाहन करनेवाले द्रव्यों के भेद से उन की अवगाहन क्रिया भी अनेकरूप हो जाती है, फलतः अवगाह्य क्षेत्र भेद, अवगाहन भेद एवं अवगाहन क्रियाओं के वैविध्य के कारण, आकाश अनेक भी है यह मानना होगा। यदि आकाश में इस तरह अवगाह्यादि अनेक रूपों का इनकार किया जाय तो आकाश जैसी कोई वस्तु ही नहीं रहेगी। तथा, एक आकाश द्रव्य के भी असंख्य-अनंत सूक्ष्म प्रदेश होते हैं इसलिये भी उस को ‘अनेक' मानना होगा। अन्यथा, हिमालयव्याप्त क्षेत्र और विन्ध्याचलव्याप्त क्षेत्र में अल्प-बहु प्रदेशों के भेद से भेद न रहने पर दोनों में समपरिणाम एवं समानदेशवृत्तित्व का अनिष्ट प्रसक्त होगा। इस प्रकार क्रमशः विवक्षा रखने पर ‘स्यात् एक और अनेक' ऐसा चौथा भंग निष्पन्न होगा। पंचमभंग :- आप आकाश को एक मानते हैं, उस के एक प्रदेश के साथ आकाश का कथंचित् अभेद होने से उस एक प्रदेश के पृथक् पृथक् विवेचन की विवक्षा की जाय तो शब्द-अगोचर होने से, समस्त प्रदेशों के वाचक पृथक् पृथक् शब्दों के न होने से वह अवक्तव्य भी है। इस प्रकार क्रमशः विवक्षा करने पर ‘स्यात् एक है और अवक्तव्य भी' यह पाँचवा भंग निष्पन्न होगा। ____ छट्ठा भंग :- प्रसिद्ध एक आकाश भी अवगाह्य-अवगाहक-अवगाहनादि भेद दृष्टि से देखा जाय तो अनेक तो है ही, किन्तु एक साथ उस के एकत्व और अनेकत्व का प्रतिपादक शब्द न होने से, अवक्तव्य भी है। अतः क्रमशः और एकसाथ, इस ढंग से विवक्षा करने पर 'स्यात् अनेक है और अवक्तव्य भी' यह छट्ठा भंग निष्पन्न होगा। सप्तम भंग :- अखंडाकाशरूप से आकाश एक है, अवगाह्य-अवगाहक-अवगाहनाक्रिया भेदो की दृष्टि से अनेक है, किन्तु पूर्ववत् एकसाथ प्रतिपादन का आग्रह होने पर अवक्तव्य कहना पडेगा। इस प्रकार क्रमशः और एकसाथ विवक्षा करने पर 'स्यात् एक है और अनेक एवं अवक्तव्य भी है' यह सातवाँ भंग निष्पन्न हुआ। इस प्रकार हर एक धर्म पर सप्तभंग निष्पन्न हो सकते हैं। * घट के व्यापकत्व के बारे में सप्तभंगी * उदाहरण के रूप में घट के सर्वगतत्व यानी व्यापकत्व को ले कर सप्तभंगी दर्शायी जा सकती है - 'घट स्यात् व्यापक है स्यात् अव्यापक है' इत्यादि । घट व्यापक इस तरह है कि घटान्तर्गत जो पार्थिव परमाणु हैं वे ही नैसर्गिक परिवर्तनशीलता के कारण कभी जलपरिणाम, कभी वायुपरिणाम, कभी अग्निपरिणाम तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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