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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् (तस्य) जिनवचनस्य नैगमादयः सापेक्षाः सप्तावयवाः, तेषामप्येकैकः शतधा व्यवस्थितः इत्यभिप्रायः। * सप्तभंगीव्युत्पादनेनानेकान्तवादसमर्थनम् * समूहरूपसप्तनयावयवोदाहरणापेक्षया च सप्तभङ्गीप्रदर्शनमागमज्ञा विदधति सामान्यविशेषात्मकत्वाद् वस्तुतत्त्वस्य - सामान्यस्यैकत्वात् तद्विवक्षायां यदेव घटादिद्रव्यम् ‘स्यादेकम्' इति प्रथमभङ्गविषयः तदेव देशकाल-प्रयोजनभेदात् नानात्वं प्रतिपद्यमानं तद्विवक्षया 'स्यादनेकम्' इति द्वितीयभंगविषयः। तदेवोभयात्मकमेकदैकशब्देन यदाऽभिधातुं न शक्यते तदा ‘स्यादवक्तव्यम्' इति तृतीयभंगविषयः। यदेव चावकाशदातृत्वेनासाधारणेन एकमाकाशं तदेवावगाह्यावगाहकावगाहनक्रियाभेदादनेकं भवति तद्रूपैर्विना तस्याऽवस्तुत्वापत्तेः, प्रदेशभेदापेक्षयाऽपि च तदनेकम् अन्यथा हिमवत्-विन्ध्ययोरप्येकदेशताप्राप्तेः, तस्य च तथाविवक्षायाम् ‘स्यादेकं चानेकं च' इति चतुर्थभंगविषयता। यदेव चैकमाकाशं भवतः प्रसिद्ध तदेकस्मिन्नवयवे विवक्षिते एकम् अवयवस्यावयवान्तराद् भिन्नत्वाद् भिन्नानां चावयवानां वाचकस्य शब्दनियुक्ति आगम के 'एक एक सातसो प्रकार के हैं' इस प्रमाणवाक्य से नैगमादिनयों के सातसो भेद प्रसिद्ध हैं। मिथ्यादर्शनों के समूह के सातसो प्रकार कहे जा सकते हैं - और वे जिनवचन के अवयवभूत हैं। अवयव जब अवयवी को छोड कर स्वतन्त्र हो जाते हैं तब उन की कोई किमत नहीं रहती। यहाँ कहने का मतलब यही है कि स्वतन्त्र होने पर जो मिथ्यादर्शन बन जाते हैं ऐसे नैगमादि सात नय सापेक्ष हो कर जिनवचन के अविभाज्य अंग बन जाते हैं और उस एक एक के सो-सो भेद है – अर्थात् वह इतना विशाल है। * अनेकान्तवाद - सप्तभंगी का निरूपण * __वस्तुतत्त्व सामान्य-विशेष उभयात्मक है। सामान्य के अवान्तर अनेक भेद हैं एवं विशेष के भी अनेक भेद होते हैं। एक साथ उन सभी सामान्य विशेष भेदों का निरूपण शक्य नहीं है क्योंकि वचनबल मर्यादित है। एक एक अंश को ले कर ही वस्तु का शाब्दिक प्रतिपादन शक्य होता है जिसे नय कहा जाता है। वे सब भेदप्रभेदयुक्त नय मिलकर ही एक वस्तु का सही निरूपण कर सकते हैं इसलिये समुदायभावापन्न सात नयों के एक एक के भी अनेक अवयव फलित होते हैं। उन अवयवों को उदाहरण के साथ दिखाने के लिये आगम के पंडितों ने सप्तभंगी का प्रदर्शन किया है प्रथमभंग :- सामान्य एकरूप होता है, उस के प्रतिपादन की चाह होने पर घटादि द्रव्य के लिये 'स्याद् एक है' ऐसा पहला भंग प्रस्तुत किया जाता है। चाहे घट के देशादिभेद से कितने भी भेद हो किन्तु सामान्यदृष्टि से सभी घट एक ही होते हैं, यहाँ भेददृष्टि गौण = उपेक्षित है। दूसरा भंग :- जब भेददृष्टि से प्रतिपादन की चाह हो तब उसी घटादिद्रव्य के देश-काल-प्रयोजनभेद को लक्ष्य में रख कर भिन्न भिन्न घटादि की विवक्षा से ‘स्यात् अनेक हैं' ऐसा दूसरा भंग प्रस्तुत किया जाता है। तीसरा भंग :- घटादि द्रव्य एक है और अनेक भी किन्तु एक साथ एक कालमें भेद-अभेद उभय दृष्टि से उस का निरूपण वचनगोचर नहीं हो सकता इस लिये तब सिर्फ ‘स्यात् अवक्तव्य' इस तीसरे भंग से ही संतोष मानना पड़ेगा। ___ चतुर्थ भंग :- यदि एकसाथ उभयदृष्टि से निरूपण करने के बदले क्रमशः उभयदृष्टि से निरूपण करने की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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