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पञ्चमः खण्डः - का० ६९
३९३ अन्यथाऽग्न्यादेरपि दाह्य-दहनशक्त्यादिपर्यनुयोगोपपत्तेः। अत एव निरपेक्षा नैगमादयो दुर्नयाः सापेक्षास्तु सुनया उच्यन्ते । अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिवृषभस्तुतिकृत्सिद्धसेनाचार्यवचनम् -
नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥ ( ) इति
अथवा सांख्यायेकान्तवादिदर्शनसमूहमयैकस्य चूर्णनस्वभावस्य मिथ्यादृष्टिपुरुषसमूहविघटनसमर्थस्य वा; यद्वा मिथ्यादर्शनसमूहा नैगमादयः - एकैकस्य नैगमादेर्नयस्य शतविधत्वात् - 'एक्केक्को वि सयविहो' * (आ०नि०गाथा ३६) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् – अवयवा यस्य तद् मिथ्यादर्शनसमूहमयम् है। जैसे मणि-मन्त्र-औषध का प्रभाव अचिन्त्य होता है वैसे ही द्रव्यों के संयोजन का प्रभाव भी अचिन्त्य होता है। आयुर्वेद के शास्त्रों में यह प्रसिद्ध तथ्य है। ठीक इसी तरह विषतुल्य सांख्यादि मिथ्यादर्शन, जो कि परस्पर निरपेक्ष (परस्पर प्रतिक्षेपक) होने के कारण ही मिथ्यात्व को प्राप्त हैं, उन का परस्परसापेक्ष उचित ढंग से यथास्थान आयोजन कर के समुदाय बनाया जाय तो वे एकान्तविरोधी यानी अनेकान्तस्वरूप अमृतमयता यानी सम्यक्त्व को प्राप्त करे, इस में कोई आश्चर्य नहीं है।
जगत् में भी दिखाई देता है कि जहर आदि पदार्थों का जब विशिष्ट रासायणिक प्रक्रिया से संयोजन किया जाता है तब उन के समुदाय (Compound) में एक ऐसे परिणाम विशेष का उद्भव हो जाता है कि वे औषध का चमत्कारिक कार्य कर देते हैं। इससे उलटा, मधु, घी आदि उत्तम द्रव्यों का विशिष्ट ढंग से संयोजन करने पर वे मौत को आमन्त्रण देनेवाले विषतुल्य द्रव्यात्मक बन जाते हैं। जो चीज प्रत्यक्षसिद्ध हो - जैसे कि दाहक स्वभावी प्राणवायु (Oxygen) और दाह्यस्वभावी उदजन (Hydrogen) वायु के संयोजन से दाहशामक पानी बन जाता है इत्यादि, उस में 'यह कैसे' ? इस प्रश्न को अवकाश नहीं रहता। यदि प्रत्यक्षसिद्ध वस्तुस्वभाव के बारे में प्रश्न करेंगे तो अग्नि की दहनशक्ति, काष्ट की दाहयोग्यता आदि के विषय में भी प्रश्न खडे हो जायेंगे। ____ बात यही है कि नैगमादिनय के अपने अपने अभिप्राय, अन्य अभिप्रायों का तिरस्कार कर के परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तब वे 'दुर्नय' कहे जाते हैं। वे ही नैगमादि नयों के अभिप्राय परस्पर सहयोग कर के जब अन्य नयों का तिरस्कार नहीं करते तब ‘सुनय' कहे जाते हैं। निर्दिष्ट हकीकत के साथ संवादी एक श्लोक वादिवृषभ स्तुतिकार श्री सिद्धसेनाचार्य का रचा हुआ उद्धृत किया गया है – “स्वर्णसिद्धिरस से परिष्कृत लोहधातुओं (स्वर्ण में पलट जाती है उस) की तरह 'स्यात्' (अनेकान्तवाचक) पद से अलंकृत आप के नय भी ये इष्टफलप्रद बन जाते हैं, इसी लिये हितकांक्षी आर्यजन आप को प्रणाम करते हैं।"
* सांख्यादि के दर्शनों का अवयव समूह, जिनदर्शन अवयवी * ___ 'मिथ्यादर्शनसमूहमय' पद की दूसरी व्याख्या :- सांख्य नैयायिकादि एकान्तवादीयों का दर्शन मिथ्यादर्शन है, जिनशासन उन का समूहात्मक एकसंकलन है, जैसे अनेक द्रव्यों के संयोग से एक चूर्ण औषध बनता है वैसा यह जिनवचन है जो मिथ्यादृष्टिवादी पुरुषों के समूह का विघटन यानी पराभव करने में सक्षम हो जाता है। अथवा तीसरे ढंग से व्याख्या- मिथ्यादर्शनों का समूह जिस के एक एक अवयव मात्र हैं ऐसा जिनवचनरूप अवयवी है। नैगमादिनय मिथ्यादर्शनों का ही समूह है और नैगमादि एक एक नय की सो-सो विधाएँ हैं। आवश्यक 4. एक्केको वि सयविहो सत्तनयसया हवंति एवं तु। अन्नो वि य आएसो पञ्च सया हुंति उ नयाणं ।।
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