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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् भद्दं मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। ६९ ।। भद्रं कल्याणम् जिनवचनस्य अस्तु इति सम्बन्धः मिथ्यादर्शनसमूहमयस्य । ननु यद् मिथ्यादर्शनसमूहमयं तत् कथं सम्यग्रूपतामासादयति ? न हि विषकणिकासमूहमयस्यामृतरूपतापत्तिः प्रसिद्धा । न, परस्परनिरपेक्षसंग्रहादिनयरूपापन्नसांख्यादिमिथ्यादर्शनानां परस्परसव्यपेक्षतासमासादितानेकान्तरूपाणां विषकणिकासमूहविशेषमयस्यामृतसंदोहस्येव सम्यक्त्वापत्तेः । दृश्यन्ते हि विषादयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषसमासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः, मध्वाज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषयरूपतामासादयन्तः । न चाध्यक्षप्रसिद्धार्थस्य पर्यनुयोगविषयता, में कहा गया है कि 'जिस के विना लोकव्यवहार का निर्वाह भी शक्य नहीं, ऐसे भुवन में एकमात्र गुरु तुल्य अनेकान्तवाद को नमस्कार है ।। ' पूर्व - पश्चिमादि दिशाओं का, छोटा-बडा इत्यादि परिमाण का, लघु-गुरु इत्यादि भार का, ऊँचा-नीचा इत्यादि का जो लोक व्यवहार होता है वह अनेकान्तसिद्धान्त के विना न्यायसंगत नहीं हो सकता। किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा जो पूर्वदिगवस्थित होता है वही दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा पश्चिमदिगवस्थित हो सकता है । जैसे उज्जैनी नगरी काश्मीर से दक्षिण में है, कलकत्ता से पश्चिम में है, बेंगलोर से उत्तर में है और अहमदाबाद से पूर्व में है। इस प्रकार तत्तद्दिगवस्थितत्व काश्मीरादि अन्य प्रान्तों से सापेक्ष ही होता है कहीं भी एकान्त से नहीं कह सकते कि उज्जैनी कौनसी दिशा में है । अतः ऐसे प्रचुर लोकव्यवहारों का समर्थन-व्युत्पादन अनेकान्तसिद्धान्त करता है इसी लिये वह गुरुतुल्य है । गुरु के विना व्यवहारों का विशुद्ध सम्पादन शक्य नहीं होता इसी लिये यहाँ अनेकान्तसिद्धान्त को 'विश्व का एकामात्र गुरू' कहा गया है, क्योंकि लोक एवं (‘अपि' शब्द से ) लोकोत्तर सभी व्यवहारों के सम्पादन में अनेकान्तसिद्धान्त ही परम मार्गदर्शक है। ऐसे महान् सिद्धान्त को नमस्कार । ३९२ = सूत्रकार प्रमाणभूत जिनवचन की स्तवना के लिये एवं इस प्रकरण ग्रन्थ की समाप्ति में आशिर्वचनात्मक अंतिम मंगलाचरण स्वरूप अन्तिम गाथासूत्र का निर्वाचन करते हैं गाथार्थ :- मिथ्यादर्शनों के ( संतुलित ) समूहात्मक एवं अमृत के सार भूत (अथवा अमृतास्वादमय), तथा संविग्नजनों के लिये सुखाधिगम्य भगवद् जिनवचन का भद्र हो ! ( कल्याण हो ! ) ।।६९ ।। व्याख्यार्थ :- भद्र यानी कल्याण, जिनवचन का हो ऐसा संक्षेप से अन्वय करना है। इस कारिका उन में से प्रथम विशेषण का विस्तृत विवेचन - में जिनवचन 'मिथ्यादर्शनसमूहमय' इत्यादि विशेषण हैं। व्याख्याकार प्रस्तुत करते हैं। * जिनवचन मिथ्यादर्शनसमूहमय, फिर भी अमृततुल्य * मिथ्यादर्शनसमूहमय यहाँ एक प्रश्न है, जो मिथ्यादर्शनों के समूह से अव्यतिरिक्त है वह कैसे 'सम्यक्’ स्वरूप को प्राप्त करेगा ? जहाँ अनेक विषकणिकाओं का संयोग किया जाय वहाँ एक अमृतमय समूहद्रव्य निष्पन्न नहीं होता । उत्तर :- सामान्यतः विषकणिकाओं का समुदाय अमृततुल्य नहीं होने पर भी, विशेष प्रकार के विषप्रायः द्रव्यों का संयोजन होने पर अमृततुल्य औषध का निर्माण होता है (विषं विषस्य घातकम्) यह सर्वविदित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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