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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६८ प्रदीपनकभयप्रपलायमानान्धवत् । तथा चागमः (आ०नि० गाथा २२) ' हयं णाणं कियाहीणं हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणो य अंधओ' ।। उभयसद्भावस्तु ‘तेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुं समर्थः । तथाहि - सम्यग्ज्ञानक्रियावान् भयेभ्यो मुच्यते उभयसंयोगवत्त्वात् प्रदीपनकभयान्धस्कन्धारूढपंगुवत्। उक्तं च 'संजोगसिद्धिए फलं वयंति' (आ०नि०गाथा २३) इत्यादि । तस्मात् सम्यग्ज्ञानादित्रितयनयसमूहाद् मुक्तिः । नयसमूहविषयं च सम्यग्ज्ञानम् श्रद्धानं च तद्विषयं सम्यग्दर्शनम् तत्पूर्वं च अशेषपापक्रियानिवृत्तिलक्षणं चारित्रम् – प्रधानोपसर्जन भावेन मुख्यवृत्त्या वा तत् त्रितयप्रदर्शकं च वाक्यमागमः नान्यः, एकान्तप्रतिपादकस्यासदर्थत्वेन विसंवादकतया तस्य प्राधान्यानुपपत्तेः, जिनवचनस्य तु तद्विपर्ययेण दृष्टवददृष्टार्थेऽपि प्रामाण्यसंगतेः ।।६८ ।। तस्य तथाभूतस्य स्तुतिप्रतिपादनाय मङ्गलार्थत्वात् प्रकरणपरिसमाप्तौ गाथासूत्रमाह - - ज्ञानशून्य क्रिया भी जीव को यह बताने में अथवा आश्वासन देने में समर्थ नहीं होती कि 'तू जन्ममरण के दुःखों से डरना नहीं ' क्योंकि वह सद्ज्ञान से विकल है। जैसे: अन्धपुरुष दावानल के भय से पलायन करता है किन्तु किस मार्ग से भागना यह नहीं देख सकने के कारण दावानल के संकट से मुक्त नहीं हो सकता। आवश्यकनिर्युक्ति आदि आगम में कहा गया है – 'क्रियाहीन ज्ञान हतभागी है और अज्ञानपूर्वक क्रिया भी हतभागिनी है। देखनेवाला भी पंगु और दौडनेवाला अन्ध दोनों ही जल गये । ' * सम्यग्ज्ञान सम्यक्क्रिया से दुःखभय का वारण ** - - Jain Educationa International सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया इन दोनों का मिलन यह आश्वासन देने में समर्थ है कि 'तू अब जन्ममरण के भय से डरना नहीं' । देखिये प्रयोग सम्यग्ज्ञान एवं क्रियावान् पुरुष भयमुक्त होता है, क्योंकि उभयसंयोजन करनेवाला है । उदा० दावानल के संकट में अन्धे के खंधे पर बैठ जानेवाला पंगु पुरुष । आवश्यकनिर्युक्ति में कहा है ‘संयोग सिद्ध होने पर फल प्राप्त होता है' । ( एक चक्र से रथ प्रयाण नहीं कर सकता ।) ३९१ - सारांश यह है कि सम्यग्ज्ञानादि तीन नयोंके समूह के आलम्बन से मोक्षप्राप्ति होती है । यहाँ विविधनयों के समूह को विषय करने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के विषयों में श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्ज्ञान-दर्शनगर्भित सकल सावद्ययोगनिवृत्ति यह चारित्र है । इन सभी को मुख्य या गौणरूप से दिखानेवाला अथवा प्रत्येक को अपने अपने स्थान में मुख्यवृत्ति से दर्शानेवाला वाक्य आगमप्रमाण कहा जाता है । उस से अन्य वाक्य एकान्त का प्रतिपादन करने से, असद्भूतअर्थस्पर्शी होने से विसंवादी होते हैं अत एव आगमरूप नहीं होते। वैसे वाक्यों का कोई प्राधान्य यानी महत्त्व नहीं होता। जिनवचन वैसा विसंवादी नहीं है, दृष्ट विषयों के बारे में वह पूर्णरूप से संवादी है, अत एव अदृष्ट पदार्थों के क्षेत्र में भी उस को प्रमाणभूत मानना संगत है ।। ६८ ।। For Personal and Private Use Only भूतपर्व सम्पादक पं. सुखलाल आदि के कथनानुसार ६८वीं कारिका के बाद मूलग्रन्थ के किसी एक हस्तादर्श में ६९ वीं कारिका के पहले यह एक अधिक कारिका उपलब्ध होती है। जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वड ( ?ह) इ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो नमो अणेगंतवायस्स ।। इस कारिका की व्याख्या यद्यपि उपलब्ध नही है किन्तु कारिकानिर्दिष्ट तथ्य महत्त्व पूर्ण है । कारिका *. संजोगसिद्धीए फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो अ पंगू अ वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पट्ठा । संपूर्णगाथा | www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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