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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् परमाणूनां पुद्गलरूपतापरित्यागे पूर्वपर्यायाऽपरित्यागे च घटपर्यायापत्तिः, क्षणिकाऽक्षणिकैकान्तयोरर्थक्रियानुपपत्तेरसत्त्वापत्तेः । परिणामिन एव सुवर्णात्मना व्यवस्थितस्य केयुरात्मना विनाशमनुभवतः कटकाद्यात्मना उत्पद्यमानस्य वस्तुनः सत्त्वात्, अन्यथा क्वचित् कस्यचित् कदाचिदनुपलब्धः। न चाध्यक्षादन्यद् गरिष्ठं प्रमाणान्तरमस्ति यतस्तद्विपरीतभावाभ्युपगमः क्रियते । अन्तर्बहिश्च हर्षविषादाद्यनेकाकारवितर्का(वर्ता)त्मकैकचैतन्य – स्थासकोशकुशूलाद्यनेकाकारस्वीकृतैकमृत्पिण्डादेः स्वसंवेदनाक्षजाध्यक्षतः प्रतिपत्तेः।
सर्वथोपलभ्यमध्यरूपं पूर्वापरकोट्योरसत् इति वदतः सर्वप्रमाणविरोधात् कुण्डलाङ्गदादिषु पर्यायेषु तादृग्भूतसुवर्णद्रव्योपलब्धेः कार्योत्पत्तौ कारणस्य सर्वथा निवृत्त्यनुपलब्धेः । ___ न च सादृश्यविप्रलम्भात् तदध्यवसायकल्पनेति वक्तव्यम् तदेकान्तभेदसाधकप्रमाणस्यापास्तत्वात् । न च कथंचित् स्वभावभेदेऽपि तादात्म्यक्षितिः, ग्राह्य-ग्राहकाकारसंविद्वत् विविक्तपरमाणुषु कभी पृथ्वी परिणाम को आत्मसात् कर लेते हैं इस प्रकार समस्त लोकाकाशस्पर्शी बन जाने से 'स्यात् घट सर्वगत है' यह पहला भंग निष्पन्न होता है, इस प्रकार यहाँ भी सात भंगो की विषयता पूर्वोक्त न्याय से संगत ही है।
यहाँ एक प्रश्न है कि घट के परमाणु जब जलादिपरिणाम को प्राप्त हो गये तो घट ही नहीं रहा, फिर उस की व्यापकता कैसे ? इस के उत्तर में व्याख्याकार कहते हैं कि घट सर्वथा अनित्य या नित्य नहीं है किन्तु नित्यानित्य है। यदि घट के परमाणु पुद्गलस्वरूप का ही त्याग कर दे तो उन में घटपर्याय की प्राप्ति कालत्रय में कभी भी नहीं हो सकेगी क्योंकि पुद्गलद्रव्य ही घटादिपर्याय वाला हो सकता है न कि जीवादिद्रव्य । अतः पुद्गलरूप से घटादि द्रव्य नित्य है। यदि घट के परमाणु पूर्वकालीन पिण्डादि अवस्था का त्याग नहीं करेंगे तो घटपर्याय का आविर्भाव अशक्य है, इस लिये पर्यायरूप से उसे अनित्य भी मानना होगा। वस्तु को एकान्त क्षणभंगुर (अनित्य) अथवा एकान्त नित्य मान लीया जाय तो उस मे अर्थक्रिया की संगति न बैठने से उस के असत् होने पर संकट होगा। सुवर्णादि वस्तु को परिणामी मानने पर ही, केयुरपर्याय से विनष्ट, कटकादिपर्याय से उत्पन्न और सुवर्णरूप से अवस्थित होने के कारण उसे 'सत्' कहा जा सकेगा। अन्यथा, द्रव्य-पर्यायात्मक या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के न होने से उस की कहीं भी कभी किसी को भी उपलब्धि ही नहीं होगी। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य साक्षात्कारसिद्ध होने से स्वीकारना ही चाहिये, प्रत्यक्ष से अन्य कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जो बलवत्तर हो, अतः प्रत्यक्षसिद्ध वस्तुस्वभाव को न मान कर उस से उलटे स्वभाव को मानना उचित नहीं हो सकता। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रमाण से सभी को महसूस होता है कि अभ्यन्तर चैतन्य कभी हर्षात्मक विवर्त्त में, तो कभी विषाद के विवर्त्त में – इस प्रकार अनेक आकारों में स्व को बदलता रहता है फिर भी चैतन्यरूप में अपने एकत्व को अखंडित रखता है। बाह्य घटादि द्रव्य भी स्थास-कोश-कुशूल आदि आकारों में स्व को बदलता हुआ मिट्टीपिण्ड के रूप में अनुगत एक स्वरूप, प्रत्यक्ष से दिखता है।
ऐसा कहीं दिखता नहीं कि वस्त सर्वथा एक मात्र मध्यमावस्था में ही स्थिर रहती हो और पर्व या पश्चाद्भावि कोटि में असत् यानी अपरिवर्त्य हो। फिर भी वैसा माननेवाले बौद्ध विद्धानों के मत में सभी प्रमाणों का विरोध प्रसक्त होगा। कुण्डल एवं अंगदादि पर्यायों में अनुगत एक सुवर्णद्रव्य का प्रत्यक्षानुभव किस को नहीं है ? ऐसा दिखता नहीं है कि मिट्टी से घडे की या तन्तुओं से वस्त्र की उत्पत्ति होने पर मिट्टी या तन्तुओं का सर्वथा विनाश यानी असत्त्व हो जाय। .
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