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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रतिलेखनं मुखवस्त्रिकाद्युपकरणप्रत्युपेक्षणमनेकविधम् । गुप्तिः मनो-वाक्-कायसंवरणलक्षणा त्रिधा । अभिग्रहा वसतिप्रमार्जनादयोऽनेकविधाः - ____एतयोश्चरण-करणयोः प्रधानास्तदनुष्ठानतत्पराः, स्वसमय-परसमयमुक्तव्यापाराः 'अयं स्व-समयः अनेकान्तात्मकवस्तुप्ररूपणात्, अयं च परसमयः केवलनयाभिप्रायप्रतिपादनात्' इत्येतस्मिन् परिज्ञानेऽनादृता अनेकान्तात्मकवस्तुतत्त्वं यथावदनवबुध्यमानाः तदितरव्यवच्छेदेन इति यावत्, चरणकरणयोः सारं = फलम् निश्चयशुद्धं निश्चयश्च तत् शुद्धं च ज्ञान-दर्शनोपयोगात्मकं निष्कलङ्क न जानन्ति = न अनुभवन्ति, ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मककारणप्रभवत्वात् तस्य कारणाभावे च कार्यस्याऽसम्भवात् अन्यथा तस्य निर्हेतुकत्वापत्तेः चरणकरणयोश्च चारित्रात्मकत्वात् द्रव्य-पर्यायात्मकजीवादितत्त्वावगमस्वभावरुच्यभावेऽभावात् । अथवा चरणकरणयोः सारं निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति । न हि यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधमन्तरेण तद्रुचिः, न च स्वसमय-परसमयतात्पर्यार्थानवगमे तदवबोधः अभिग्रह (नियम) पालन किया जाता है उसको ‘प्रतिमा' कहते हैं, भिक्षुओं के लिये बारह प्रतिमा (और श्रावकवर्ग के लिये सम्यग्दर्शनादि ग्यारह प्रतिमा) का विधान है। इन्द्रियनिरोध यानी चक्षु आदि पाँच इन्द्रियों का निरोध = संयम = नियन्त्रण । जीव-जन्तु की हिंसा न हो जाय उस के लिये मुखवस्त्रिका आदि अनेक धर्मोपकरणों का प्रत्युपेक्षण-निरीक्षण करना यह प्रतिलेखन है। मन, वचन एवं काया की अशुभ प्रवृत्तियों पर अंकुश एवं शुद्ध प्रवृत्तियों में प्रवर्तन - ये गुप्ति तीन हैं। अभिग्रह यानी विशिष्ट प्रकार से त्यागादिप्रतिज्ञा जिस के अनेक भेद हैं। ये सभी प्रतिभेद ७० प्रकार के होते हैं। ___चरणसित्तरी और करणसित्तरी के विस्तार के जिज्ञासु पंचवस्तु, पञ्चाशक, प्रवचनसारोद्वार आदि ग्रन्थों का परिशीलन करें।
* स्वपरसमयभेद के अजाण चरण-करणसारवंचित * __ अब व्याख्याकार गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वे मुनि, जो इन चरण-करण के ही अनुष्ठान में निमग्न रहते हैं किन्तु 'अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप को दिखाने वाला होने से यह स्वसमय है - केवल (अन्यनिरपेक्ष) एक नय के अभिप्राय पर भार देने के कारण यह परसमय है' – इस प्रकार के विवेकज्ञान का अर्जन करने के लिये परिश्रम करने के बदले जो अनादर करते हैं वे चरणकरण के सारभत रहस्य नहीं जानते - ऐसा आगे अन्वय करना है। अनेकान्तात्मक होता है वस्तुतत्त्व – इस तथ्य को एकान्त के व्यवच्छेदपूर्वक न समझनेवाले वे मुनि निश्चयात्मक निष्कलङ्क शुद्ध ज्ञान-दर्शनोपयोगरूप चरण करण के फल का अनुभव नहीं कर पाते। निश्चयात्मक निष्कलंक ज्ञान-दर्शनोपयोग यानी विशुद्ध उपयोग तो ज्ञानदर्शन-चारित्रात्मक कारणकलाप का सामुदायिक कार्य है, कारणों के विरह में कार्य का सम्भव ही नहीं होता, अन्यथा कारण के विना कार्य उत्पन्न होगा तो वह निर्हेतुक होने की आपत्ति होगी। चरण-करणानुष्ठान चारित्ररूप है, द्रव्य-पर्यायात्मक जीवादितत्त्व के बोधस्वरूप शुद्ध रुचि के विरह में चारित्र का सम्भव नहीं होता।
गाथा के उत्तरार्द्ध का दूसरे प्रकार से विवेचन इस प्रकार है – चरण-करण का सार है निश्चयतः शुद्ध ऐसा सम्यग्दर्शन । स्वसमय-परसमय का विवेकज्ञान न रहने पर उस का अनुभव नहीं होता। जब तक यथावस्थित वस्तुतत्त्व का अवबोध न हो तब तक यथार्थरुचि नहीं होती, स्वसमय-परसमय के तात्पर्यार्थ का अवबोध न होने पर बोटिक = दिगम्बरादि को तत्त्वावबोध का सम्भव नहीं रहता।
प्य को
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