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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६७ ३८७ चरणम् = श्रमणधर्मः, (ओ०नि०गाथा-२) ___ 'वय-समणधम्म-संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। णाणाइतियं तव कोहणिग्गहाई चरणमेयं ।। इति वचनात् । व्रतानि हिंसाविरमणादिनि पञ्च । श्रमणधर्मः क्षान्त्यादिर्दशधा, संयमः पञ्चास्रवविरमणादिः सप्तदशभेदः, वैयावृत्त्यं दशधा आचार्याराधनादि, ब्रह्मगुप्तयो नव वसत्यादयः, ज्ञानादित्रितयं ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, तपो द्वादशधा अनशनादि, क्रोधादिकषायषोडशकस्य निग्रहश्चेत्यष्टधा चरणम् ।। करणम् पिण्डविशुद्धयादिः – (ओ०नि०गाथा-३) "पिंडविसोही समिई भावण-पडिमाइ-इंदियनिरोहो । पडिलेहण-गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ।। इति वचनात् । तत्र पिण्डविशुद्धिः त्रिकोटिपरिशुद्धिराहारस्य - "संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह अप्पलेविया चेव । उग्गहिया पग्गहिया उज्झियहम्मा य सत्तमिया' । ( ) इति सप्तधा वा। समितिः ईर्यासमित्यादिः पञ्चधा। भावना अनित्यत्वादिका द्वादश । प्रतिमा मासादिका द्वादश भिक्षूणाम्, दर्शनादिकैकादशोपासकानाम् । इन्द्रियनिरोधः चक्षुरादिकरणपञ्चकसंयमः। से दूर रहते हैं वे निश्चयशुद्ध चरण-करण के सार को नहीं जान सकते ।।६७।। व्याख्यार्थ :- व्याख्या में पहले कुछ विस्तार से अष्टविध चरण की एवं अष्टविध करण की भेद-प्रभेद के साथ विवेचना की गयी है। * चरणसित्तरी - करणसित्तरी * चरण यानी सामान्यतः साधुओं का आचारधर्म । ओधनियुक्ति में उस के आठ भेद ऐसे गिनाये हैं - व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्त्य, ब्रह्मचर्यरक्षक नव मर्यादा, ज्ञानादित्रितय, तप एवं क्रोधनिग्रहादि । सर्वजीवहिंसानिवृत्ति, सर्वमृषावाद-निवृत्ति, सर्वविधचौर्यनिवृत्ति, सर्वविधमैथुननिवृत्ति, सकलपरिग्रहनिवृत्ति ये हैं पाँच महाव्रत। श्रमणधर्म के ये दश प्रकार हैं – सत्य, क्षमा, मृदुता, शौच (भीतर की पवित्रता), असंगता, सरलता, ब्रह्मचर्य, विमुक्ति, संयम और तपस्या। संयम के सत्तरा भेद हैं जिस में पञ्च आस्रवों से विरति आदि गिनाये जाते हैं। 'दशविध आचार्यादि की सेवा को वैयावृत्त्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिये स्त्रीआदिशून्य वसति में रहना इत्यादि नव गुप्ति = मर्यादाएँ कही गयी है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र ये ज्ञानादित्रितय है। अनशनऊनोदरी, ध्यान-कायोत्सर्गादि १२ प्रकार तप के हैं। अनन्तानुबन्धि आदि चतुर्विध क्रोध-मान-माया-लोभ कषायों चतुष्क का विजय। यह सारा ‘चरणसित्तरी' कहा जाता है क्योंकि इस में ७० प्रतिभेद होते हैं। ____करण में पिण्डविशुद्धि आदि ७० प्रतिभेद गिनाये गये हैं। ओघनियुक्ति में मुख्य करण का निर्देश इस प्रकार से किया हैं - पिण्डविशुद्धि पहला करण है, उस का मतलब है अकृत-अकारित-अक्रीत ऐसे तीन कोटि से विशुद्ध आहारपिंड का ग्रहण करना । अथवा संसृष्ट, असंसृष्ट, उद्धृत, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता और उज्झितधर्मा ऐसे सात भेद जो पिण्डैषणा के हैं यही है पिण्डविशुद्धि। पिण्डैषणा यानी पिण्ड-ग्रहण के विविध प्रकार । पाँच समिति – ईर्यासमिति, भाषासमिति, ऐषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति, परिष्ठापनिकासमिति । सम्यक् सप्रयोजन प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है। अनित्यत्व-अशरणत्व आदि की तीव्र अनुभूतिस्वरूप बारह भावना है जो संसार के राग को शिथिल कर देती हैं। एकमास - दो मास आदि पर्यन्त जो विशिष्ट कठोर 5. दृष्टव्यास्या गाथायाः व्याख्या पंचाशके १८-६ टीकायाम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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