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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___ यथा यथा बहुश्रुतः सम्यगपरिभावितार्थानेकशास्त्रश्रवणमात्रतः तथाविधाऽपराऽविदितशास्त्राभिप्रायजनसम्मतश्च शास्त्रज्ञत्वेन अत एव श्रुतविशेषानभिज्ञैः शिष्यगणैः समन्तात् परिवृतश्च अविनिश्चितश्च समये तथाविधपरिवारदात् समयपर्यालोचनेऽनादृतत्वात् तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रकाशकार्हदागमप्रतिपक्षः निस्सारप्ररूपणयाऽन्यागमेभ्योऽपि भगवदागममधः करोतीति यावत् ।।६६ ।।
तस्मात् शास्त्रमधीत्य तदर्थावधारणं विधेयम् अवधृतश्च तदर्थो नय-प्रमाणाभिप्रायतो यथावत् परिभावनीयः अन्यथा तत्फलपरिज्ञानविकलताप्रसक्तिरित्याह -
चरण-करणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा।
चरणकरणस्स सारं णिच्छयसद्धं ण याणति ।।६७।। ___ गाथार्थ :- ज्यों ज्यों बहुश्रुतसम्मत एवं शिष्यवर्ग से अधिक परिवृत हो जाता है किन्तु आगम के बारे में अविनिश्चित रहता है, त्यों त्यों वह सिद्धान्त का दुश्मन बनता है।।६६।।
व्याख्यार्थ :- कोई एक पंडित कहा जाने वाला आचार्य या साधु (या श्रावक भी) अनेक शास्त्रों का श्रवण (एवं वांचन) कर लेता है और लोगों में 'बहुश्रुत' अथवा 'शास्त्रपुरस्कर्ता' की मिथ्या ख्याति को प्राप्त कर लेता है, किन्तु शास्त्रों के अर्थ का वह सम्यक् पर्यालोचन नहीं करता; ऐसा आचार्यादि शास्त्रतात्पर्य से अनभिज्ञजनों में अपनी वाचालता आदि के कारण व्याख्यानवाचस्पति आदि के रूप में सम्मत यानी तथाविध अज्ञानी लोगों में लोकप्रिय हो जाता है। उसकी लोकप्रियता – ख्याति-आडम्बर आदि को देख कर वैसे ही शास्त्रतात्पर्य के अनभिज्ञ जन उस से आकृष्ट हो कर उस के शिष्य बन बैठते हैं - इस प्रकार इधर-उधर से दूसरे के शिष्यों को भी प्रपञ्चादि से अपनी ओर खिंच कर विशाल शिष्यपरिवार का नेता बन जाता है। विशाल परिवार के अभिमान में वह शास्त्र के तात्पर्य के पर्यालोचन में, कदाग्रह के कारण कभी दत्तचित्त नहीं होता, मैं जो मानता हूँ – समझता हूँ और कहता हूँ वही सत्य है – वही शास्त्र का सच्चा अर्थ है ऐसा लोगों के दिल में ठसाने के लिये वह भारी प्रपञ्च खेलता है किन्तु शास्त्र के सही तात्पर्य के बारे में अविनिश्चित-यानी निश्चयशून्य ही रहता है - ऐसा बहुश्रुत, सम्मत, विशालशिष्यवर्गवाला शास्त्रतात्पर्यविमुख आचार्यादि अधिक अधिक शास्त्र का - सिद्धान्त का - जैनशासन का दुश्मन बन बैठता है। वास्तव में तो वह यथावस्थितवस्तुस्वरूप के प्रकाशक तीर्थंकर-आगम का विरोधी ही होता है इतना ही नहीं वह हजारों लाखों रूपयों का पानी करके अपने मिथ्या मताभिप्राय को जिनवाणी-जैनप्रवचन के स्वरूप में प्रस्तुत करके उस की तथ्यहीन सारहीन शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा के द्वारा परमेश्वर के आगमशास्त्रों का 'शास्त्र-शास्त्र' के नाम पर ही अन्यदीय शास्त्रों की तुलना में भी बडा अवमूल्यन कराता है। प्रत्यक्ष उदाहरण है वर्तमान काल में जयवीयरायसूत्र के इष्टफलसिद्धि पद की अनेक पूर्वाचार्यकृत व्याख्याओं से उलटा मनमाने अर्थ का प्रचार करनेवाले आभासिकजैनप्रवचनकार ||६६।।
* नयप्रमाण से शास्त्रार्थ का परिभावन-कर्त्तव्य * इस प्रतिपादन से कहने का तात्पर्य इतना है - शास्त्र का सम्यक् अध्ययन कर के उस के अर्थ का ठीक अवधारण करना चाहिये। अर्थावधारण करने के बाद उस अर्थ का नय एवं प्रमाण के अभिप्राय के आलोक में पर्यालोचन करना चाहिये, नहीं तो उस के फलभूत ऐदम्पर्य ज्ञान से वंचित रह जाने का अनिष्ट प्रसक्त होता है - इस बात को ६७ वी गाथा से सूत्रकार कहते हैं -
गाथार्थ :- चरण-करण के पालन में ही तत्पर बने रह कर जो स्वआगम एवं परागम के परिशीलन
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