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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६६ ३८५ ___यदपि - 'भगवत्प्रतिमाया न भूषा आभरणादिभिर्विधेया' इति स्वाग्रहावष्टब्धचेतोभिर्दिगम्बरैरुच्यते' - तदपि अर्हत्प्रणीतागमापरिज्ञानस्य विजृम्भितमुपलक्ष्यते, तत्करणस्य शुभभावनिमित्ततया कर्मक्षयाऽवन्ध्यकारणत्वात् । तथाहि – भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्यारोपणं कर्मक्षयकारणम्, कर्तुर्मनःप्रसादजनकत्वात्, कुङ्कुमाद्यालेपनवत् । न च व्रतावस्थायां भगवता भूषणादेरनङ्गीकृतत्वाद् न तत्प्रतिकृतौ तद् विधेयम् संमज्जनाङ्गरागपुष्पादिधारणस्यापि तदवस्थायां भगवताऽनाश्रितत्वात् न तत्तत्र विधेयं स्यात् । अथ मेरुमस्तकादिषु तदभिषेकादौ इन्द्रादिभिस्तस्य विहितत्वादस्मदादिभिरपि कृतानुकरणादिभिः प्रयोजनैस्तत् तत्र विधीयते तर्हि तत एवाभरणादिभिर्विभूषादिकमपि विधेयम् कृतानुकरणादेः समानत्वात्। एवमन्यदप्यागमबाह्यं स्वमनीषिकया परपरिकल्पितमागम-युक्तिप्रदर्शनेन प्रतिषेद्धव्यम् न्यायदिशः प्रदर्शितत्वात् । तदेवमनधीताऽश्रुतयथावदपरिभावितागमतात्पर्या दिग्वासस इवाप्ताज्ञां विगोपयन्तीति व्यवस्थितम् ।।६५ ।। यत एवं ततः - जह जह बहुस्सुओ संमओ अ सिस्सगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥६६ ।। * जिनप्रतिमा की आभरणादिविभूषा कर्मक्षयसाधक * दिगम्बरों का चित्त अपने कदाग्रह से इतना उपप्लुत है कि वे कहते हैं कि – ‘भगवान की प्रतिमा की वस्त्राभूषणादि से पूजा-शोभा नहीं करना चाहिये ।' व्याख्याकार कहते हैं कि इस में उन लोगों का भगवत् केवलीभाषित आगमों के बारे में गाढ अज्ञान ही प्रदर्शित होता है। उन लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि भगवान की प्रतिमा को आभूषणादि से सजाना कर्मक्षय का कारण है क्योंकि कर्ता को (एवं दृष्टा को भी) मनःप्रसन्नता का हेत है जैसे केसरचन्दनादि का विलेपन (जो कि दिगम्बर भी करते हैं। यदि यहाँ कहा जाय - भगवान ने व्रतग्रहण के बाद आभूषणादि का अंगीकार नहीं किया अतः उन की प्रतिमा में वह नहीं होना चाहिये। - तो फिर व्रतधारण के बाद भगवान ने स्नान, अंगविलेपन, पुष्पादिधारण भी नहीं किया था, इसलिये दिगम्बरों को यह भी सब छोड देना पडेगा। यदि कहा जाय – मेरुपर्वत के शिखर पर जन्माभिषेकादि अवसर पर इन्द्रादि देवताओं ने भगवान को स्नानादि कराया था, उस सुकृत का अनुकरण आदि प्रयोजन को लक्ष में रख कर हम लोग भी प्रतिमा के स्नानादि करते हैं - तब तो उस अवसर पर देवताओं ने भगवान को आभरणादि से विभूषित भी किया था, तो सुकृत-अनुकरणादि प्रयोजन श्वेताम्बर पक्ष में भी न्याययुक्त हैं। इस प्रकार, यहाँ जो न्याय दिशा का निर्देश किया गया है उस के अनुसार आगमों से विपरीत अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पित अन्य अन्य कुछन्दों का भी आगम एवं युक्तिविन्यास के द्वारा प्रतिषेध, सज्जनों के लिये कर्त्तव्य है। सारांश यह है कि दिगम्बरों की भाँति जिन्होंने न तो आगमों का अध्ययन किया है, न तो ठीक ढंग से श्रवण किया है और न उस के तात्पर्य का सम्यग् परिभावन किया है वे आप्तजनों की आज्ञा की विडम्बना करनेवाले है। वर्तमानकाल में भी ऐसे कुछ अनभिज्ञ लोग देवद्रव्यवृद्धि के सुविहित उपायों से संचित देवद्रव्यादि से जिनप्रतिमा की पूजा-विभूषादि करने का विरोध करते हैं और अन्तरायकर्मों का बन्ध करते हैं, निःसंदेह वे लोग जिनाज्ञा की विडम्बना करते हैं। - यह फलित होता है ।।६५ ।। ___ भगवदाज्ञा का पर्यालोचन न करने से ही ऐसा होता है इस तथ्य का अधिक स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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