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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६७ ____३८९ बोटिकादेरिव सम्भवी। अथ जीवादिद्रव्यपर्यायार्थाऽपरिज्ञानेऽपि 'यदर्हद्भिरुक्तं तदेवैकं सत्यम्' इत्येतावतैव सम्यग्दर्शनसद्भावः। 'मण्णइ तमेव सच्चं हिस्संकं जं जिणेहिं पण्णत्तं' (दृष्टव्यः-आचारांग-५-५-१६२) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न, स्वसमय-परसमयपरमार्थानभिज्ञैर्निरावरणज्ञानदर्शनात्मकजिनस्वरूपाऽज्ञानवद्भिः तदभिहितभावानां सामान्यरूपतयाप्यन्यव्यवच्छेदेन सत्यस्वरूपत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वात् । नन्वेवमागमविरोधः सामायिकमात्रपदविदो माषतुषादेर्यथोक्तचारित्रिणस्तत्र मुक्तिप्रतिपादनात्, सकलशास्त्रार्थज्ञताविकलव्रतस्य व्रताद्याचरणनैरर्थक्यापत्तिश्च तत्साध्यफलानवाप्तेः । न च यथोपवर्णितचरणकरणे सम्यग्दर्शनवैफ(?क)ल्ये भवतः, ज्ञानादित्रितयस्यापि तत्र पाठात् । न, ये यथोदितचरणकरणप्ररूपणासेवनद्वारेण प्रधानादाचार्यात् स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्ति-इति नञोऽत्र सम्बन्धात्, ते चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येव, गुर्वाज्ञया प्रवृत्तेः चरणगुणस्थितस्य साधोः सर्वनयविशुद्धतयाऽभ्युप ___* सामायिकमात्रापदज्ञानी माषतुषमुनि की मुक्ति कैसे ? * यहाँ एक प्रश्न खडा होता है - जीवादि तत्त्वों के द्रव्यपयार्यभेद से अर्थ का विज्ञान न होने पर भी 'जो अरिहंत ने कहा है वही एक सच है' इतनी सामान्यतः श्रद्धा से भी सम्यग्दर्शन का सद्भाव माना जा सकता है। इस तथ्य में यह आगमप्रमाण साक्षी भी है - 'मण्णइ०' इत्यादि, जिस का यह भावार्थ है कि 'जिनेश्वरदेवों ने जो कहा है वही एक निःशंक सत्य है ऐसा (सम्यग्दृष्टि) मानता है।' उत्तर यह है कि... सामान्यतः श्रद्धा भी कुतत्त्वव्यवच्छेदपूर्वक तत्त्व के सामान्यतः सत्यरूप से ज्ञान के विना नहीं हो सकती। जिस को स्वसमय और परसमय के परमार्थ का ज्ञान नहीं है, एवं निरावरण ज्ञानदर्शन उभयस्वरूप तीर्थंकर जिनेन्द्र के स्वरूप का भी ज्ञान नहीं है - उस जीव को सामान्यतया कुतत्त्वव्यवच्छेदपूर्वक केवलिभाषित तत्त्वों का सत्यस्वरूप से ज्ञान हो नहीं सकता, तब उस के विना उसे सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ?! प्रश्न :- ऐसा कहने पर आगमविरोध क्यों नहीं होगा ? आगमशास्त्र में कहा है कि सामायिकपदमात्र के ज्ञानी और सामायिक चारित्र के धारक माषतुषादि मुनि को स्वसमय-परसमयादि का कुछ अन्यव्यवच्छेदपूर्वक सामान्यज्ञान भी नहीं था। वे तो ‘मा रुष मा तुष' इतना भी कंठस्थ कर नहीं पाये थे। फिर भी उन की मुक्ति हो गयी। तथा, आप के कथनानुसार तो सम्यग्दर्शन के लिये सकलशास्त्रीय अर्थो का स्वसमयादि भेद से ज्ञान अनिवार्य हो जायेगा। फलतः उस के विना व्रतधारण करने वाले यतियों का व्रतादिपालन निरर्थक हो जाने की विपदा होगी, क्योंकि उससे साध्य फल का, सम्यग्दर्शनप्रयोजक ज्ञान न होने से आविर्भाव नहीं होगा। यह भी जान लीजिये कि जिस चरण-करण को आप सम्यग्दर्शन के विना निष्फल बता रहे हैं वे चरण-करण के विना सम्भव ही नहीं है क्योंकि वहाँ ‘चरण' में ज्ञानादि तीनों का समावेश हैं। ___ उत्तर :- आगमविरोध इस लिये नहीं हैं कि नञ्पद का अन्वय दूसरे ढंग से (पूर्वार्ध के साथ) करेंगे। जिन्होंने शास्त्रोक्त चरण-करण की प्ररूपणा एवं उस के यथार्थ पालन द्वारा प्रधानभूत आचार्य के पास रह कर स्वसमय और परसमय के परिशीलनादि व्यापार को ताक पर नहीं रख दिया (इस प्रकार पूर्वार्ध के साथ नञ् का अन्वय हुआ-) वे निश्चयविशुद्ध चरण-करण के सार को जान सकते हैं – प्राप्त करते हैं, क्योंकि हमारा 4. अविभक्तसर्वज्ञश्रद्धानस्य चाऽपुनर्बन्धकादिसम्भवित्वेन सम्यग्दर्शनाऽनियामकत्वात् - इत्यधिकपाठोऽनेकान्तव्यवस्थायाम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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