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पञ्चमः खण्डः - का० ६५
३७७ स्त्रीवेदोदस्य तासामसम्भवात्, अनिवृत्तिगुणस्थाने एव तस्य परिक्षयात् । 'परिक्षीणस्त्रीवेदत्वात्' इति च हेतुर्विपर्ययव्याप्तत्वाद् विरुद्धः। न च 'स्त्रीत्वात्' इत्यस्य 'परिक्षीणस्त्रीवेदत्वात्' इत्ययमर्थः, अत्रार्थे प्रकृतशब्दस्याऽरूढत्वात् । अथ 'स्त्र्याकारयोगित्वात्' 'स्त्रीत्वात्' इति हेत्वर्थस्तदा विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् अनैकान्तिको हेतुः।।
चतुर्दशपूर्वसंवित्सम्बन्धित्वाभावोऽपि तासां कुतः सिद्धः येन साध्यविकलो दृष्टान्तो न स्यात् ? 'सर्वज्ञप्रणीतागमात्' इति चेत् ? तत एव मुक्तिभाक्त्वस्यापि तासां सिद्धिरस्तु। न ह्येकवाक्यतया व्यवस्थितः दृष्टेष्टादिषु बाधामननुभवन् आप्तागमः क्वचित् प्रमाणं क्वचिनेत्यभ्युपगन्तुं प्रेक्षापूर्वकारिणा शक्यः। अथ विवादगोचरापन्नाऽबला अशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकला, अविद्यमानाधःसप्तमनरकप्राप्त्यविकलकारणकर्मबीजभूताध्यवसानत्वात् । यस्त्वशेषकर्मपरिक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकलो न भवति नासावविद्यमानाधःसप्तमनरकप्राप्त्यविकलकारणकर्मबीजभूताध्यवसानः, यथोभयसम्प्रतिपत्तिविषयः को भी स्त्रीवेद के उदय का सम्भव नहीं होता क्योंकि अनिवृत्तिबादरमोहसंज्ञक नवमें गुणस्थान में स्त्रीवेद का क्षय होने के बाद ही १३ वें और १४ वें गुणस्थानक को प्राप्त किया जा सकता है। यदि 'स्त्रीत्व' हेतु का यह अभिप्राय हो कि 'स्त्रीवेद क्षीण हो जाने से' - तो वह हेतु विपर्ययव्याप्त होने से विरुद्ध हो जायेगा। स्त्रीवेदविनाशसामर्थ्याभाव का विरोधी है स्त्रीवेदविनाशसामर्थ्य और स्त्रीवेदक्षय उस का कार्य होने से उस का व्याप्य है – इस प्रकार जो विपर्यय का व्याप्य है वह तो उलटा साध्य के अभाव को यानी सामर्थ्य को सिद्ध करता है, इसी लिये विरुद्ध है। दूसरी बात यह है कि 'स्त्रीत्व' शब्द का 'स्त्रीवेदपरिक्षय' अर्थ दिखाना यह भी अनुचित है क्योंकि स्त्रीवेद की क्षीणता के अर्थ में प्रस्तुत 'स्त्रीत्व' शब्द कहीं भी रूढ नहीं है। यदि कहा जाय कि – 'स्त्रीत्व' हेतु का मतलब है 'स्त्रीआकार का योग होना' - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि हेतु यदि विपक्ष से व्यावृत्त है या नहीं ऐसा संशय हो तब उस संशय का निवर्त्तक उचित तर्क होना चाहिये, यदि वह नहीं हो तो हेतु की विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो जाने से वह अनैकान्तिकदोषग्रस्त बन जायेगा। प्रस्तुत में, यदि स्त्री-आकार का योग विपक्षभूत स्त्रीवेदविनाशसक्षम व्यक्ति में भी रहे तो कौन बाधक है ऐसी शंका की जाय तो उस का कोई समाधान नहीं है, स्त्री-आकार का योग भी हो और उस में स्त्रीवेदविनाशशक्ति भी हो – उस में कोई बाधकप्रमाण न होने से हेतु की विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो जाती है, अतः स्त्रीत्व हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा।
* चौदहपूर्वज्ञानाभावसाधक आगम से मुक्तिसिद्धि * दिगम्बरने जो स्त्रीत्वहेतुक प्राथमिक अनुमान में, स्त्री में चउदहपूर्व के ज्ञान के अभाव को दृष्टान्त बनाया है, यहाँ प्रश्न है कि चउदहपूर्वज्ञानाभाव स्त्री में किस प्रमाण से सिद्ध है ? जब कोई प्रमाण ही नहीं है तब दृष्टान्त क्यों साध्यशून्य न कहा जाय ?
(यद्यपि यहाँ चउदहपूर्वज्ञानाभावविशिष्ट स्त्री को उदाहरण करने पर यह भी प्रश्न है कि चउदहपूर्व का ज्ञान न रहे तो मुक्ति नहीं होती ऐसा भी किस प्रमाण से सिद्ध है ? तीर्थंकरों को चउदहपूर्वो का पाठ नहीं होता किन्तु मुक्ति होती है। फिर भी अब इस बात को स्थगित रखा है।)
यदि सर्वज्ञभाषित आगम के आधार पर स्त्री को चउदहपूर्वज्ञान न होने में विश्वास किया जाता है तो उसी आगम के द्वारा स्त्रीयों को मुक्तिप्राप्ति की भी सिद्धि होती है, उस के ऊपर अविश्वास क्यों ? सर्वज्ञ-भाषित सम्पूर्ण आगम एक विस्तृत महावाक्यस्वरूप है, उस के पहले सूत्र से अन्तिमसूत्र पर्यन्त एकवाक्यता होती है,
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