SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कर्माङ्गभूतस्त्रीवेदपरिक्षयमन्तरेण तासां मुक्तिप्राप्तिरिति मुक्तिसद्भावावेदकमेव वचस्तासां सामर्थ्यावेदकं सिद्धम् । अथ स्त्रीत्वादेव न तासां तत्परिक्षयसामर्थ्यम् । न, स्त्रीत्वस्य तत्परिक्षयसामर्थ्येन विरोधाऽसिद्धेः । न ह्यविकलकारणस्य तत्परिक्षयसामर्थ्यस्य स्त्रीत्वसद्भावादभावः क्वचिदपि निश्चितो येन अग्नि-शीतयोरिव सहानवस्थानविरोधस्तयोः सिद्धो भवेत् । नापि भावाभावयोरिवानयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपता अवगता येन परस्परपरिहारस्थितलक्षणविरोधसिद्धिर्भवेत् । न चाऽविरुद्धविधिरन्यस्याभावावेदकः अतिप्रसङ्गात् । तन्न स्त्रीत्वादपि तासां तत्परिक्षयसामर्थ्यानुपपत्तिसिद्धिः। प्रत्यक्षस्य तु इन्द्रियजस्यातीन्द्रियपदार्थभावाभावविवेचनेऽनधिकार एवेति नाऽतोऽपि तत्परिक्षयसामर्थ्यानुपपत्तिसिद्धिस्तासाम् । अतोऽनेकदोषदुष्टत्वान प्रकृतपक्षः साधनमर्हति । ___'स्त्रीत्वात्' इति हेतुरपि यदि ‘उदितस्त्रीवेदत्वात्' इत्युपात्तस्तदाऽसिद्धः मुक्तिप्राप्तिप्राक्तनसमयादिषु से अल्पबहुत्वविचारमें कहा गया है कि स्त्रीतीर्थंकर सिद्ध कम से कम होते हैं। स्त्रीतीर्थंकर के तीर्थ में अतीर्थकरी (= तीर्थ स्थापना न करने वाली महिला) हो कर सिद्ध होने वाली महिलाएँ तीर्थंकरी की संख्या से असंख्यगुण होती हैं। ऐसे अनेक आगमो में स्त्रीसिद्ध का निर्देश यह अर्थापत्ति से सिद्ध करता है कि स्त्रीयों में स्त्रीवेद के क्षय का सामर्थ्य अक्षुण्ण होता है। समस्त कर्मसेना में नायक है मोहनीय कर्म, उस का एक भेद है स्त्रीवेद कर्म, उस के क्षय के विना मुक्ति प्राप्त करने वाले स्त्रीसिद्ध का सम्भव नहीं है अतः स्त्रीसिद्ध को मुक्ति की प्राप्ति के सूचक आगमवचन से अर्थतः यह भी सूचित हो जाता है कि स्त्रियों में स्त्रीवेद विनाश का सामर्थ्य अवश्य होता है। * स्त्रीत्वहेतुक अनुमान में दोषपरम्परा * दिगम्बर :- स्त्रियों में स्त्रीवेदविनाशसामर्थ्य मूल से ही नहीं होता यह हमारी प्रतिज्ञा है। हेतु है स्त्रीत्व, 'स्त्री होना' यही हेतु पर्याप्त है। __ यथार्थवादी :- स्त्रीत्व और स्त्रीवेदविनाशसामर्थ्य में कोई प्रतिष्ठित विरोध नहीं है अतः हेतु साध्यसाधक नहीं हो सकता। किसी भी स्थल में ऐसा निर्णय नहीं हो सकता कि मोक्षप्राप्ति के परिपूर्ण कारण के होते हए भी स्त्रियों में सिर्फ एकमात्र स्त्रीत्व की बदौलत स्त्रीवेदविनाश की क्षमता नहीं होती। यदि ऐसा होता तो ठंडी और अग्नि की तरह उन में सहानवस्थान संज्ञक विरोध सिद्ध होता। भाव और अभाव जैसे परस्परव्यवच्छेदात्मक स्वरूप होता है वैसा विरोध भी यहाँ स्त्रीत्व और स्त्रीवेदविनाशसामर्थ्य में नहीं है क्योंकि ये दो परस्पर व्यवच्छेदक नहीं है। यदि एक पदार्थ दूसरे भाव का व्यवच्छेदकरूप से विरुद्ध हो तो उस एक के विधान से दूसरे की निवृत्ति सिद्ध की जा सकती, किन्तु जहाँ विरोध ही नहीं है वहाँ एक के विधान से दूसरे की व्यावृत्ति का निवेदन शक्य नहीं है। सारांश, स्त्रीत्व होने पर स्त्रीवेदविनाश के सामर्थ्य की दुर्घटता सिद्ध नहीं हो सकती। प्रत्यक्ष से तो यह सिद्ध हो नहीं सकता कि स्त्री में स्त्रीवेदविनाशक्षमता दुर्घट है, क्योंकि स्त्रीवेदादि पदार्थ अतीन्द्रिय होने से, अतीन्द्रिय भाव और अभाव के परिच्छेद में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष खुद ही पंगु है, उस का वहाँ अधिकार ही नहीं है। दिगम्बर की यह स्त्रीमुक्तिविरोधि प्रतिज्ञा ऐसे कई दोषों से दुष्ट है इसलिये वह सिद्धिकोटि पर पहुँचने के काबिल नहीं है। दिगम्बरने यहाँ जो 'स्त्रीत्व' को हेतु किया है उस का अभिप्राय यदि यह हो कि 'उदितस्त्रीवेदत्व' अर्थात् 'स्त्रीवेद का उदय होने से' - तो हेतु ही असिद्ध बन जायेगा, क्योंकि मोक्षप्राप्ति के निकट पूर्वकाल में स्त्रीयों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy